व्यथा राधेची

Started by kumudini, May 12, 2015, 06:34:19 PM

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kumudini

        व्यथा   राधेची
आर्त  होऊनी  राधा  विनवी  बासुरीला
सोड  ग  श्रीहरी    अधराला

सखा  जरी माझा  श्रीहरी
असते  नित्य  तू  त्याच्या  अधरी
दया  कशी  ना  येई  तुजला
विरहाग्नी  हा  जाळी  मजला
डोळा  लागत  ना  डोळ्याला
व्याकुळला  जीव  श्रीहरी  सहवासाला
सुचतच  नाही  काही  मजला
का  छळसी  तू  मम  हृदयाला
स्त्री  असुनीही  का न
स्त्री  हृदयाला
                                             कुमुदिनी  काळीकर

सतिश


जयंत

म्हणते बासुरी, "अगे, सुंदरी

अधरांजवळी धरता मज श्रीहरी

पसरती माझे स्वर गिरीकंदरी

साठव की ते तुझिया उदरी"