"साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,
आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत]"
भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत] – क्रमांक--5--
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इसी उधेड़बुन में मैं महल की छत पर पहुँच गया था। छत वस्तुत: एक मंजिल और उपर होनी चाहिये थी लेकिन पूर्णत: ध्वस्त थी। यत्र तत्र बिखरे हुए स्तंभ जिन पर उकेरे गये देवता, अश्व और गज अब धराशायी थे। चाँदनी नें वातावरण को स्निग्ध किया और वक्त ठहरा हुआ प्रतीत होने लगा।
मैने आँखें बंद की और अतीत में डूबने की कोशिश की। हजारों घोड़ो की टाप का कोलाहल, हाथियों के चिंघाडने की आवाज, तोपों से उगली जाती आग के धमाके...शोर शोर और शोर। बाजार लूट लिये गये हैं व्यापारी अपनी दूकान को ही पथरायी आखों से देख रहा है आम आदमी बदहवास है लूटा जा रह है, पीटा जा रहा है, हकाला जा रहा है उसकी औरते नोची जा रही हैं...आग जल उठी है चीखें उठ रही हैं, जौहर हो रहा है...तबाह बस तबाह...घबरा कर अपने कानों पर हाँथ रख लेता हूँ। खामोशी छा जाती है बिखरा नगर आखों के आगे पसरा पड़ा है।
भारी मन लिये महल से नीचे उतरने लगा। अब हमारे साथ एक कुत्ता भी था। बड़ा रहस्यमयी था यह कुत्ता भी, लगभग घंटे भर से इसे मैं देख रहा हूँ, महल की सबसे उँची प्राचीर पर यह मूर्ति की तरह खड़ा था, इसनें हमारी उपस्थ्ति को तवज्जो भी नहीं दी थी किंतु लौटते हुए हमारे साथ हो लिया, वह भी इस तरह मानों हमारा रक्षक हो, मार्गदर्शक हो।....।
माहौल में अजीब सी गंध थी जिसकी परिभाषा मुश्किल है अन्यास ही विचित्र घुटन महसूस होने लगी थी शायद मेरे भीतर की सोच का मनोवैज्ञानिक असर हो। रात हो गयी थी, चमगादड सक्रिय हो गये थे महल के भीतर से उनकी सक्रियता विचित्र तरह का शोर बन रही थी; आवाज के गूंजने से कल्पना रह रह कर सजीव हो जाती। महल की एक खिड़की से काली रंग की पचासो छोटी चिडिया एक साथ बाहर निकलती फिर एक साथ उसमें ही चली जाती; यह आवृति इतनी तेज थी कि कुछ संदिग्ध सूंघा जा सकता था। हम अपनी कल्पनाओं, अनुमानों और अनुभवों के साथ महल से नीचे उतर आये थे।
हम मंदिरों, मस्जिद और राह में मिले भग्नावशेषों का निरीक्षण करते हुए लौटने लगे।
वह कुत्ता हमारे साथ लगा ही रहा। समूह में जो व्यक्ति आगे चलता, कुत्ता उसके साथ हो लेता।एकाएक बीस-पच्चीस बंदरों के झुंड नें हमें मानो घेर सा लिया। यह विकट परिस्थिति थी। लेकिन उस कुत्ते के भय से बंदर हमसे दूर ही रहे, जो बंदर हमारे निकट आने का यत्न करता उसके पीछे कुत्ता दौड़ लगा देता...और फिर हमारे साथ हो लेता।
महल से भानगढ अवशेषों के बाहर आने के बीच तीन दरवाजे हैं जिन्हे साथ फाँद कर वह कुत्ता हमारे साथ ही रहा लेकिन आखिरी दरवाजे से पहले रुक गया। उसने एक क्षण हमारी ओर इस निगाह से देखा मानो कह रहा हो हमारा साथ यहीं तक, फिर वह पलटा और महल की ओर लौट गया। हम उसे सन्नाटे के शहर की ओर जाता देखते रहे...।
--राजीव रंजन प्रसाद
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(साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-12.11.2022-शनिवार.