"मेरी धरोहर"
कविता सुमन-58
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मित्रो,
आज पढेंगे, ख्यातनाम, "मेरी धरोहर" इस शीर्षक अंतर्गत, मशहूर, नवं कवी-कवियित्रीयोकी कुछ बेहद लोकप्रिय रचनाये. आज की कविता का शीर्षक है- "कल तक कितने हंगामें थे अब कितनी ख़ामोशी है..."
"कल तक कितने हंगामें थे अब कितनी ख़ामोशी है..."
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कल तक कितने हंगामें थे अब कितनी ख़ामोशी है
पहले दुनिया थी घर में अब दुनिया में रूपोशी है
पल भर जागे, गहरी नींद का झोंका आया, डूब गए
कोई ग़फ़लत सी ग़फ़लत, मदहोशी सी मदहोशी है
जितना प्यार बढ़ाया हमसे,उतना दर्द दिया दिल को
जितने दूर हुए हो हमसे, उतनी हम-आगोशी है
सहको फूल और कलियां बांटो हमको दो सूखे पत्ते
ये कैसै तुहफ़े लाए हो ये क्या बर्ग-फ़रोशी है
रंगे-हक़ीक़त क्या उभरेगा ख़्वाब ही देखते रहने से
जिसको तुम कोशिश़ कहते हो वो तो लज़्ज़त-कोशी है
होश में सब कुछ देख के भी चुप रहने की मज़बूरी थी
कितनी मानी-ख़ेज़ जमील हमारी ये बेहोशी है
रूपोशी: मुंह छिपाना, हम-आगोशी: आलिंगन, बर्ग-फ़रोशी: पत्ते बेचना,
लज़्ज़त-कोशी: यथार्थता का रंग, मानी-ख़ेज़: अर्थ पूर्ण.
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--जमील मलिक
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--yashoda Agrawal
(Monday, December 02, 2013)
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(साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-४ यशोदा.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-08.02.2023-बुधवार.
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