ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला ओव्या १ ते२१ / कठीण शब्दाच्या अर्थासहित

Started by विक्रांत, March 20, 2016, 08:39:36 PM

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विक्रांत

ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला / संत ज्ञानेश्वर

ॐ नमोजी आद्या | वेद प्रतिपाद्या।   
जय जय स्वसंवेद्या | आत्मरुपा ॥१॥ 
आद्या |=जेथून सर्व जगत उत्पत्ती झाली ते तत्व
वेद प्रतिपाद्या = वेदांनी प्रतिपादन केलेले. स्वसंवेद्या |=स्वत: स्वत;ला जाणणारे

देवा तूंचि गणेशु | सकलमति प्रकाशु।
म्हणे निवृत्ति दासु | अवधारिजो जी ॥२॥
अवधारिजो=ऐका

हें शब्दब्रह्म अशेष | तेचि मूर्ति सुवेष।
तेथ वर्णवपु निर्दोष | मिरवत असे ॥३॥
शब्दब्रह्म=वेद
अशेष=संपूर्ण . सुवेष =सुंदर. वर्णवपु =वर्ण(शब्द)रुपी देह .

स्मृति तेचि अवयव | देखा अंगिकभाव।
तेथ लावण्याची ठेव | अर्थशोभा ॥४॥
अंगिकभाव=शरीर ठेवण


अष्टादश पुराणे | तीचि मणिभूषणे।
पदपद्धती खेवणे | प्रमेयरत्नांची ॥५॥
पदपद्धती खेवणे = छंदोबद्ध काव्य रचना हे कोंदण
प्रमेयरत्नांची= प्रतिपादित तत्वे |सिद्धांत

पदबंध नागर | तेचि रंगाथिले अंबर।
जेथ साहित्यवाणे | सपूर उजाळाचे ॥६॥
पदबंध=शब्दरचना. नागर=उत्तम |सुंदर. रंगाथिले= रंगविले.अंबर=वस्त्र
साहित्यवाणे = साहित्य रुपी धागा. सपूर = नाजूक. उजाळाचे=झळाळत

देखा काव्यनाटका | जे निर्धारिता सकौतुका।
त्याचि रुणझुणती क्षुद्रघंटिका | अर्थध्वनी ॥ ७॥
निर्धारिता=पाहता

नाना प्रमेयांचि परी | निपुणपणे पाहता कुसरी।
दिसती उचित पदे माझारी | रत्नें भली ॥ ८॥
माझारी=मधे 

तेथ व्यासादिकांच्या मति | तेचि मेखळा मिरवती।
चोखाळपणे झळकती | पल्लवसडका ॥ ९॥
मेखळा=शेला (साखळी) पल्लवसडका=पदराचे शेव

देखा षड्दर्शने म्हणिपती | तेचि भुजांची आकृती ॥
म्हणऊनि विसंवादे धरिती | आयुधे हाती ॥ १०॥
विसंवादे=एकमेका न मिळणारी (पटणारी)

तरी तर्क तोचि परशु | नीतिभेदु अंकुशु।
वेदांतु तो महारसु | मोदकाचा ॥ ११ ॥
१ तर्क=कणाद शास्त्ररुपी अनुमान वैशेषिक दर्शन
२ नीतिभेदु= गौतमिय न्यायशास्त्रदर्शन   
३ वेदांत रुपी मोदक

एके हाति दंतु | जो स्वभावता खंडितु।
तो बौद्धमत संकेतु | वार्तिकांचा ॥ १२ ॥
बौद्धमत संकेतु=बौद्धमत निर्देशक
४ वार्तिकांचा =पातंजल दर्शन (रुपी हातात)

मग सहजे सत्कारवादु | तो पद्मकरु वरदु।
धर्मप्रतिष्ठा तो सिद्धु | अभयहस्तु ॥ १३ ॥
५ सत्कारवादु=महर्षी कपिल प्रतिपादित सांख्यमत
६ अभयहस्तु=अभयकर (जैमिनिकृत धर्मसूत्रे) मीमांसा दर्शन


देखा विवेकमंतु सुविमळु | तोचि शुंडादंडु सरळु।
जेथ परमानंदु केवळु | महासुखाचा ॥ १४ ॥
विवेकमंतु सुविमळु =कुठलाही मल नसलेला सुंदर असा विवेक
शुंडादंडु=सोंड

तरी संवादु तोचि दशनु | जो समताशुभ्रवर्णु।
देवो उन्मेषसुक्ष्मेक्षणु | विघ्नराजु ॥ १५ ॥
समताशुभ्रवर्णु=समतारुपीशुभ्र वर्णाचा वरील दात
उन्मेषसुक्ष्मेक्षणु=उन्मेष रुपी लहान डोळ्यांचा
मज अवगमलिया दोनी | मीमांसा श्रवणस्थानी।
बोधमदामृत मुनी | अलि सेविती ॥ १६ ॥
अवगमलिया=वाटतात दोनी मीमांसा =पूर्व आणि उत्तर मीमांसा
श्रवणस्थानी=कान
बोधमदामृत- गंडस्थळातून स्त्रवणारा बोधरूपी मद
अलि=मधमाश्या

प्रमेयप्रवाल सुप्रभ | द्वैताद्वैत तेचि निकुंभ।
सरिसे एकवटत | इभ मस्तकावरी ॥ १७ ॥
प्रमेयप्रवाल सुप्रभ =प्रमेयरुपी प्रवाळानी शोभायमान
निकुंभ =गंडस्थळ इभ=हत्ती

उपरि दशोपनिषदे | जिये उदारे ज्ञानमकरंदे।
तिये कुसुमे मुगुटी सुगंधे | शोभती भली ॥ १८ ॥
मकरंदे= मध
अकार चरणयुगुल | उकार उदर विशाल।
मकार महामंडल | मस्तकाकारे ॥ १९ ॥

हे तिन्ही एकवटले | तेथ शब्दब्रह्म कवळले।
ते मियां गुरूकृपा नमिले | आदिबीज ॥ २० ॥
शब्दब्रह्म= ॐ

आतां अभिनव वाग्विलासिनी | जे चातुर्यार्थकलाकामिनी।
ते शारदा विश्वमोहिनी | नमिली मियां ॥ २१ ॥
अभिनव =अपूर्व .वाग्विलासिनी-=वाचेतून विलास करणारी
चातुर्यार्थकलाकामिनी= चौषष्टकलांची स्वामिनी

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