ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला ओव्या ५१ ते ८४ / संत ज्ञानेश्वर

Started by विक्रांत, March 20, 2016, 08:48:25 PM

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विक्रांत

ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला ओव्या ५१ ते ८४  / संत ज्ञानेश्वर

ना तरी शब्दब्रह्माब्धि। मथिलेया व्यासबुद्धि।
निवडिले निरवधि | नवनीत हे।। ५१॥
शब्दब्रह्माब्धि=शब्द ब्रह्मरुपी सागर
निरवधि=अपार नवनीत=लोणी

मग ज्ञानाग्निसंपर्के | कडसिलें विवेके।
पद आले परिपाकें | आमोदासी ॥ ५२॥
कडसिलें =कढवले आमोदासी=सुगंधासी

जे अपेक्षिजे विरक्ति | सदा अनुभविजे संतीं।
सोहंभावे पारंगती | रमिजे जेथ ॥ ५३॥

जे आकर्णिजे भक्ती | जें आदिवंद्य त्रिजगतीं।
ते भीष्मपर्वीं संगती | म्हणतली कथा  ॥ ५४॥


जें भगवद्गीता म्हणीजे | जें ब्रह्मेशांनीं प्रशंसिजे।
जे सनकादिकीं सेविजे | आदरेसीं ॥ ५५॥

जैसे शारदियेचे चंद्रकळे- | माजीं अमृतकण कोंवळे।
तें वेंचती मवाळें | चकोरतलगें ॥ ५६॥
मवाळें= मृदुल ,नाजूक.  चकोरतलगें=चकोराची पिले

तियापरी श्रोतां | अनुभवावी हे कथा।
अति हळुवारपणे चित्ता | आणूनियां ॥ ५७॥

हे शब्देविण संवादिजे | इंद्रियां नेणता भोगिजे।
बोलाआधि झोंबिजे | प्रमेयासी ॥ ५८॥
झोंबिजे=कळणे स्पर्शने
जैसे भ्रमर परागु नेती | परी कमळदळे नेणती।
तैसी परी आहे सेविती | ग्रंथी इये ॥ ५९॥

का आपुला ठावो न सांडिता | आलिंगिजे चंद्रु प्रकटता।
हा अनुरागु भोगितां | कुमुदिनी जाणे ॥ ६०॥
अनुरागु =प्रीती कुमुदिनी=कमळ

ऐसेनि गंभीरपणे | स्थिरावलेनि अंत:करणे।
आथिला तोचि जाणे | मानूं इये ॥ ६१॥
आथिला=असा, येथला,

अहो अर्जुनाचिये पांती | जे परिसणया योग्य होती।
तिहीं कृपा करून संतीं | अवधान द्यावे ॥ ६२॥
पांती =पंगती   परिसणया=बसण्यास

हे सलगीं म्यां म्हणितले | चरणां लागोनि विनविलें।
प्रभू सखोल हृदय आपुलें | म्हणऊनियां ॥ ६३॥

जैसा स्वभावो मायबापांचा | अपत्य बोले जरी बोबडी वाचा।
तरी अधिकचि तयाचा | संतोष आथी ॥ ६४॥

तैसा तुम्हीं मी अंगीकारिलां | सज्जनीं आपुला म्हणितला।
तरी सहज उणें उपसाहला | प्रार्थूं कायी ॥ ६५॥
उपसाहला=सहन केला

परी अपराधु तो आणिक आहे | जें मी गीतार्थ कवळुं पाहें।
ते अवधारा विनवूं लाहें | म्हणऊनियां ॥ ६६॥
अवधारा=ऐका

हे अनावर न विचारितां | वायांचि धिंवसा उपनला चित्ता।
येऱ्हवीं भानुतेजीं काय खद्योता | शोभा आथी ॥ ६७॥
अनावर=कळायला अवघड   धिंवसा=धीर ,(इच्छा)
खद्योता=काजवे

का टिटिभू चांचूवरी | माप सूये सागरी।
मी नेणतु त्यापरी | प्रवर्तें येथ ॥ ६८॥
सूये=मोजणे

आइका आकाश गिंवसावे | तरी त्याहूनि थोर होआवें।
म्हणऊनि अपाडु हें आघवें | निर्धारिता ॥ ६९॥
गिंवसावे =धरावे, व्यापावे . अपाडु=अपार कठीण

या गीतार्थाची थोरी | स्वयें शंभू विवरी।
जेथ भवानी प्रश्नु करी | चमत्कारोनी ॥ ७०॥

तेथ हरू म्हणे नेणिजे | देवी जैसें का स्वरूप तुझें।
तैसें नित्यनूतन देखिजे | गीतातत्व ॥ ७१॥
हरू=श्री शंकर

हा वेदार्थसागरू | जया निद्रिताचा घोरू।
तो स्वयें सर्वेश्वरू | प्रत्यक्ष अनुवादला ॥ ७२॥
निद्रिताचा-(भ.विष्णूचा) निद्रेमध्ये . घोरू =घोरणे
सर्वेश्वरू=श्रीकृष्ण

ऐसें जें अगाध | जेथ वेडावती वेद।
तेथ अल्प मी मतिमंद | काय होय ॥ ७३॥

हें अपार कैसेनि कवळावे | महातेज कवणें धवळावे।
गगन मुठीं सुवावे | मशके केवीं ॥ ७४॥
धवळावे=उजळावे  सुवावे= मावणे
मशके=माशी ,चिलट

परी एथ असे एक आधारु | तेणेचि बोलें मी सधरु।
जे सानुकूळ श्रीगुरु | ज्ञानदेवो म्हणे ॥ ७५॥
सधरु=धीर धरून

येऱ्हवीं तरी मी मुर्खू | जरी जाहला अविवेकु।
तरी संतकृपादीपकु| सोज्वळु असे ॥ ७६॥
सोज्वळु=प्रकाशमान ,पवित्र

लोहाचे कनक होये | हे सामर्थ्य परिसींच आहे।
की मृतही जीवित लाहे | अमृतसिद्धी ॥ ७७ ॥

जरी प्रकटे सिद्धसरस्वती | तरी मुकया आथी भारती।
एथ वस्तुसामर्थ्यशक्ति | नवल कायी ॥ ७८॥
मुकया आथी भारती=मुक्यालाही वाचा फुटते लागते

जयातें कामधेनू माये | तयासी अप्राप्य काही आहे।
म्हणऊनि मी प्रवर्तों लाहे | ग्रंथी इये ॥ ७९॥

तरी न्यून ते पुरतें | अधिक ते सरते।
करून घ्यावे हें तुमते | विनवीतु असे ॥ ८०॥

आता देईजो अवधान | तुम्हीं बोलविल्या मी बोलेन।
जैसे चेष्टे सूत्राधीन | दारुयंत्र ॥ ८१॥
दारुयंत्र=कठपुतली

तैसा मी अनुग्रहीतु | साधूंचा निरोपितु।
ते आपुला अलंकारितु | भलतयापरी ॥ ८२॥
निरोपितु=निरोप आणणारा

तंव श्रीगुरू म्हणती राहीं | हे तुज बोलावे न लगे कांही।
आता ग्रंथा चित्त देईं | झडकरी वेगा ॥ ८३॥
झडकरी=लवकर

या बोला निवृत्तिदासु | पावूनि परम उल्हासु।
म्हणे परियेसा मना अवकाशु | देऊनियां ॥ ८४॥
मना अवकाशु=मन शांत करून, निर्विचार करून

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