ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला ओव्या ८५ ते ११४

Started by विक्रांत, March 20, 2016, 08:52:09 PM

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विक्रांत

ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला ओव्या ८५ ते११४

        धृतराष्ट्र उवाच।
       धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
       मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ १॥

तरी पुत्रस्नेहे मोहितु | धृतराष्ट्र असे पुसतु ॥
म्हणे संजया सांगे मातु | कुरुक्षेत्रींची ॥ ८५॥
पुसतु=विचारले   मातु =वार्ता ,वृतांत

जें धर्मालय म्हणिजे | तेथ पांडव आणि माझे।
गेले असती व्याजें | झुंजाचेनि ॥ ८६॥
व्याजें=कारणे,निमित्ते 

तरी तिहीं येतुला अवसरीं | काय किजत असे येरयेरीं।
तें झडकरी कथन करी | मजप्रती ॥ ८७॥


     संजय उवाच।
       दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
       आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ २॥

तिये वेळी तो संजय बोले | म्हणे पांडवसैन्य उचलले।
जैसें महाप्रळयीं पसरले | कृतांतमुख ॥ ८८॥
उचलले=सरसावले कृतांतमुख=मृत्यूचे तोंड

तैसे तें घनदाट | उठावले एकवाट।
जैसें उसळले कालकूट | धरीं कणव ॥ ८९॥
घनदाट=पुष्कळ मोठे एकवाट=एकदम

ना तरी वडवानलु सादुकला | प्रलयवाते पोखला।
सागर शोषूनि उधवला | अंबरासी ॥ ९०॥
सादुकला=पेटला  पोखला=वाढला
उधवला=उसळला

तैसे दळ दुर्धर | नाना व्यूहीं परिकर।
अवगमले भयासुर | तिये काळीं ॥ ९१॥
दुर्धर=अवघड (जिंकण्यास) व्यूहीं=सैन्य रचना  परिकर=सज्ज ,परीपूर्ण
अवगमले=वाटले

तें देखिलेयां दुर्योधनें | अव्हेरिले कवणे माने।
जैसें न गणिजे पंचाननें | गजवटांते ॥ ९२ ॥
कवणे माने=कश्या प्रकारे गणिजे =जुमानणे 
पंचाननें =सिंह | गजवटांते= हत्तींचे कळप
   
      पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
       व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥ ३॥

मग द्रोणापासी आला | तयाते म्हणे हा देखिला।
कैसा दळभारु उचलला | पांडवांचा ॥ ९३॥
उचलला=सरसावला

गिरिदुर्ग जैसे चालते | तैसे विविध व्यूह संभवते।
हे रचिले आथि बुद्धिमंते | द्रुपद्कुमरें ॥ ९४॥
संभवते=निर्माण करून

जो का तुम्हीं शिक्षापिला | विद्या देऊनी कुरुठा केला।
तेणे हा पाखरिला | देखदेख ॥ ९५॥

शिक्षापिला=शिकवला कुरुठा=शहाणा
पाखरिला=आश्रय दिला (सांभाळला )

        अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
        युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ: ॥ ४॥

आणिकही असाधारण | जे शस्त्रास्त्रीं प्रवीण।
जे क्षात्रधर्मीं निपुण | वीर आहाती ॥ ९६॥

जे बळें प्रौढी पौरुषें | भीमार्जुनांसारिखे।
ते सांगेन कौतुकें | प्रसंगेचि ॥ ९७॥
प्रौढी=कीर्ती पौरुषें=पराक्रमी

एथ युयुधानु सुभटु | आला असे विराटु।
महारथी श्रेष्ठु | द्रुपद वीरु ॥ ९८ ॥
सुभटु=वीर योद्धा
        धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजेश्च वीर्यवान।
        पुरुजित् कुंतिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगव: ॥ ५॥

       युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
       सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथ: ॥ ६॥

चेकितान धृष्टकेतु | काशिश्वरु विक्रांतु।
उत्तमौज नृपनाथु | शैब्य देख ॥ ९९ ॥
विक्रांतु=पराक्रमी

हा कुंतिभोजु पाहे | एथ युधामन्यु आला आहे।
आणि पुरुजितादि राय हे | सकळ देखे ॥ १००॥

हा सुभद्रहृदयनंदनु | जो अपरु नवा अर्जुनु।
तो अभिमन्यु म्हणे दुर्योधनु | देखे द्रोणा ॥ १०१॥
अपरु= दुसरा

आणिकही द्रौपदीकुमर | के सकळही महारथी वीर।
मिती नेणिजे अपार | मीनले आथि ॥ १०२ ॥
मिती=मोजमाप मीनले=एकत्रित जमले

        अस्माकं तु विशिष्टा ये तान् निबोध द्विजोत्तम।
        नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान् ब्रवीमि ते ॥ ७॥

        भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समिंतिंजय:।
        अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तिस्थैव च ॥ ८॥

आतां आमुचां दळीं नायक | जे रूढ वीर सैनिक।
ते प्रसंगे आइक | सांगिजती ॥ १०३॥
रूढ= नावजले

उद्देशें एक दोनी | जायिजती बोलोनी।
तुम्हीआदिकरूनि | मुख्य जे जे ॥ १०४॥

हा भीष्मु गंगानंदनु | जो प्रतापतेजस्वी भानू।
रिपुगजपंचाननु | कर्ण वीरु ॥ १०५ ॥
रिपुगजपंचाननु =शत्रूरुपी हत्तीना सिंह

या एकेकाचेनि मनोव्यापारें | हे विश्व होय संहरे।
हा कृपाचार्य न पुरे | एकलाचि ॥ १०६॥

एथ विकर्ण वीरु आहे | हा अश्वत्थामा पैल पाहें।
याचा अडदरु सदा वाहे | कृतांतु मनीं ॥ १०७॥
अडदरु=भिती  कृतांतु=काळ, यम

समितिंजयो सोमदत्ति | ऐसे आणिकही बहुत आहाती ॥
जयाचिया बळा मिती | धाताही नेणे ॥ १०८॥
धाताही=ब्रह्मदेव

       अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता:।
       नानाशस्त्रप्रहरण: सर्वे युद्धविशरद: ॥ ९॥

जे शस्त्रविद्यापारंगत | मंत्रावतार मूर्त।
हो कां जे अस्त्रजात | एथूनि रूढ।। १०९॥

हे अप्रतिमल्ल जगीं | पुरता प्रतापु अंगी।
परी सर्व प्राणें मजचिलागी | आराइले असती ॥ ११०॥
आराइले=अनुकूल ,अनुसरणारे (अर्पित)

पतिव्रतेचे हृदय जैसे | पतीवांचूनि न स्पर्शे।
मी सर्वस्व या तैसे | सुभटांसी ॥ १११॥
सुभटांसी=वीरांना

आमुचिया काजाचेनि पाडें | देखती आपुलें जीवित थोकडें।
ऐसे निरवधि चोखडे | स्वामिभक्त ॥ ११२॥
काजाचेनि पाडें =कार्याच्या पुढे .थोकडें=लहान
निरवधि= पूर्णतः चोखडे =चोख ,खरे

झुंजती कुळकणी जाणती | कळे कीर्तीसी जिती।
हे बहु असो क्षात्रनीती | एथोनियां ॥ ११३॥
कुळकणी=कौशल्य  कळे=शस्त्रकले

ऐसें सर्वापरी पुरते | वीर दळी आमुतें।
आतां काय गणूं यांतें | अपार हे ॥ ११४॥
गणूं=मोजू