ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला११६ते १५० / कठीण शब्दाच्या अर्थासहित /संत ज्ञानेश्वर

Started by विक्रांत, March 20, 2016, 08:54:23 PM

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विक्रांत

         अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
         पर्याप्तं त्विदमेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥ १०॥

वरी क्षत्रीयांमाजि श्रेष्ठु | जो जगजेठी गा सुभटु।
तया दळवैपणाचा पाटु | भीष्मासी पैं ॥ ११५॥
जगजेठी=जगातील जेष्ठ . दळवैपणाचा पाटु= सेनापती पद

आतां याचेनि बळें गवसलें | हें दुर्ग जैसे पन्नासीलें।
येणे पाडे थेंकुले | लोकत्रय ॥ ११६॥
गवसलें=पांघरणे व्यापणे (आश्रय देणे) पन्नासीलें=शृंगारले   थेंकुले=लहान

आधींच समुद्र पाहीं | तेथ दुवाडपणा कवणा नाहीं ॥
मग वडवानळु तैसेयाही | विरजा जैसा ॥ ११७॥
दुवाडपणा=द्वाडपणा,दुस्तर  विरजा=सहायक

ना तरी प्रळयवन्ही महावातु | या दोघां जैसा सांघातु।
तैसा हा गंगासुतु | सेनापति ॥ ११८॥
सांघातु=एकत्रीकरण

आतां येणेंसि कवण भिडे | हे पांडव सैन्य कीर थोडें।
ओइचलेनि पाडे | दिसत असे ॥ ११९॥
कीर =खरोखर ओइचलेनि=उगा लहान

वरी भीमसेन बेथु | तो जाहला असे सेनानाथु।
ऐसें बोलोनि हे मातु | सांडिली असे ॥ १२०॥
बेथु=दांडगा मातु=गोष्ट
         अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
         भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ ११॥

मग पुनरपि काय बोले | सकळ सैनिकांते म्हणितलें।
आता दळभार आपुलाले | सरसे करा ॥ १२१॥

जिया जिया अक्षौहिणी | तिये तिये आरणी।
वरगण कवणकवणी | महारथिया ॥ १२२॥
आरणी= रणभूमी  वरगण=वाटणी

तेणे तिया आवरिजे | भीष्मातळीं राहिजे।
द्रोणाते म्हणिजे | तुम्हीं सकळ ॥ १२३॥

हाचि एकु रक्षावा | मी तैसा हा देखावा।
येणें दळभारु आघवा | साचु आमुचा॥ १२४॥
साचु=समर्थ

       तस्य सनरयन् हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
       सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान् ॥ १२॥

या राजाचिया बोला | सेनापति संतोषला।
मग तेणे केला | सिंहनादु ॥ १२५॥

तो गाजत असे अद्भुतु | दोन्ही सैन्यांआंतु।
प्रतिध्वनि न समातु | उपजत असे ॥ १२६॥
समातु-थांबणे

तयाचि तुलगासवे | वीरवृत्तिचेनि थावें।
दिव्य शंख भीष्मदेवें | आस्फुरिला ॥ १२७॥
तुलग= आवाज ध्वनी 

ते दोन्ही नाद मिनले | तेथ त्रैलोक्य बधीरभूत जाहलें।
जैसें आकाश कां पडिलें | तुटोनियां ॥ १२८॥

घडघडीत अंबर | उचंबळत सागर।
क्षोभलें चराचर | कांपत असे ॥ १२९॥

तेणें महाघोषगजरें | दुमदुमताती गिरिकंदरें।
तंव दळामाजि रणतुरें | आस्फुरिलीं ॥१३०॥

        ततः शंखाश्च भैर्यश्च पणवानकगोमुखः।
        सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१३॥

उदंड सैंघ वाजतें | भयानकें खाखाते।
महाप्रळयो जेथें | धाकडांसी ॥ १३१ ॥
सैंघ =जिकडेतिकडे खाखाते=कर्कश
धाकडांसी=धीराचे
भेरी निशाण मांदळ | शंख काहळा भोंगळ।
आणि भयासुर रणकोल्हाळ | सुभटांचे ॥ १३२॥
रणकोल्हाळ=गोंधळ,प्रचंड आवाज

आवेशें भुजा त्राहाटिती | विसणैले हांका देती।
जेथ महामद भद्रजाती | आवरती ना ॥ १३३॥
त्राहाटिती=थोपाटती विसणैले=युध्दमद चढलेले चिडलेले

तेथ भेडांची कवण मातु | कांचया केर फिटतु।
जेणें दचकला कृतांतु | आंग नेघे ॥ १३४॥
कांचया=कच्चे ,केर फिटतु=कस्पटागत उडती
आंग नेघे =सावरता न येणे

एकां उभयाचि प्राण गेले | चांगांचे दांत बैसले।
बिरुदांचे दादुले | हिंवताती ॥ १३५॥
चांगांचे=चांगले धीराचे  बिरुदांचे =प्रतिष्ठा असलेले  दादुले=वीर

ऐसा अद्भुत तूरबंबाळु | ऐकोनि ब्रह्मा व्याकुळु।
देव म्हणती प्रळयकाळु | ओढवला आजि ॥ १३६॥
तूरबंबाळु =वाद्याचा आवाज

ऐसी स्वर्गीं मातु | देखोनि तो आकांतु।
तंव पांडवदळा आंतु | वर्तलें कायी ॥ १३७॥
मातु=हकीकत गोष्ट

हो कां निजसार विजयाचे | कीं ते भांडार महातेजाचे।
जेथ गरुडाचिचे जावळिये | कांतले चाऱ्ही  ॥ १३८॥
जावळिये = सारखे . कांतले चाऱ्ही =जुंपलेले चार

        ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
        माधवः पांडवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥ १४॥

की पाखांचा मेरु जैसा | रहंवरु मिरवितसे तैसा।
तेजें कोंदटलिया दिशा जयाचेनि ॥१३९॥
रहंवरु=रथ
जेथ अश्ववाहकु आपण | वैकुंठीचा राणा जाण।
तया रथाचे गुण | काय वर्णूं ॥ १४०॥

ध्वजस्तंभावरी वानरु | तो मूर्तिमंत शंकरु।
सारथी शारङधरु | अर्जुनेसीं ॥ १४१॥

देखा नवल तया प्रभूचें | प्रेम अद्भुत भक्तांचे।
जे सारथ्य पार्थाचें | करीतु असे ॥ १४२॥

पाईकु पाठीसीं घातला | आपण पुढां राहिला।
तेणें पांचजन्यु आस्फुरिला | अवलीळाचि।। १४३॥

        पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
        पौंड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः ॥ १५॥

परी तो महाघोषु थोरु | गाजत असे गंहिरु।
जैसा उदैला लोपि दिनकरु | नक्षत्रांते ॥ १४४॥

तैसें तुरबंबाळु भंवते | कौरवदळी गाजत होते।
ते हारपोनि नेणों केऊते | गेले तेथ ॥ १४५॥

तैसाचि देखे येरें | निनादें अति गंहिरे।
देवदत्त धनुर्धरे | आस्फुरिला ॥ १४६॥

ते दोनी शब्द अचाट | मिनले एकवट।
तेथ ब्रह्मकटाह शतकूट | हों पाहत असे ॥ १४७॥
ब्रह्मकटाह=ब्रह्मांड (कढई)
तंव भीमसेनु विसणैला | जैसा महाकाळु खवळला।
तेणें पौंड्र आस्फुरिला | महाशंखु ॥ १४८॥
विसणैला=आवेशात आलेला चिडलेला
         अनंतविजयं राजा कुंतीपुत्रो युधिष्ठिरः।
         नकुलः सहदेवश्चं सुघोष्मणिपुष्पकौ ॥ १६॥

तो महाप्रलयजलधरु | जैसा घडघडिला गंहिरु।
तंव अनंतविजयो युधिष्ठिरु | आस्फुरित असे ॥ १४९॥

नकुळें सुघोषु | सहदेवे मणिपुष्पकु।
जेणें नादें अतंकु | गजबजला असे ॥ १५०॥
अतंकु=यम