ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला१५१ते १७४ / कठीण शब्दाच्या अर्थासहित /संत ज्ञानेश्वर

Started by विक्रांत, March 20, 2016, 08:57:04 PM

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विक्रांत

ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला ओव्या १५१ ते २०६
        काश्यश्च परमेश्वासः शिखंडी च महारथः।
        दृष्टद्युम्नो विराटश्च सातकिश्चापराजितः ॥ १७॥

        द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वेशः पृथिवीपते।
        सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान् दध्मुः पृथक् पृथक् ॥ १८॥

तेथ भूपती होते अनेक | द्रुपद द्रौपदेयादिक।
हा काशीपती देख | महाबाहु ॥ १५१॥
भूपती=राजे . द्रौपदेयादिक= द्रौपदीचे पुत्र


तेथ अर्जुनाचा सुतु | सात्यकि अपराजितु।
दृष्टद्युम्नु नृपनाथु | शिखंडी हन ॥ १५२॥
हन=खरोखर
विराटादि नृपवर | जे सैनिक मुख्य वीर |
तिहीं नाना शंख निरंतर | आस्फुरिले ॥ १५३॥

तेणें महाघोषनिर्घातें | शेषकूर्म अवचिते।
गजबजोनि भूभारातें | सांडूं पाहती ॥ १५४॥
निर्घातें=आघाते गजबजोनि=दचकून

तेथ तिन्हीं लोक डंडळित | मेरु मांदार आंदोळित।
समुद्रजळ उसळत | कैलासवेरी ॥ १५५॥

         स घोषो धार्त्रराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
         नभश्च पृथिवींश्चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥ १९॥

पृथ्वीतळ उलथों पाहत | आकाश असे आसुडत।
तेथ सडा होत  | नक्षत्रांचा।। १५६॥

सृष्टि गेली रे गेली ॥ देवां मोकळवादी जाहली।
ऐशी एक टाळी पिटिली | सत्यलोकीं | १५७ ॥
मोकळवादी=निराश टाळी पिटिली=वार्ता पसरली

दिहाचि दिन थोकला | जैसा प्रलयकाळ मांडला।
तैसा हाहाकारु उठिला | तिन्हीं लोकीं ॥ १५८॥
दिहाचि= दिवसा  थोकला=थांबला

तंव आदिपुरुषु विस्मितु | म्हणे झणें होय पां अंतु।
मग लोपला अद्भुतु | संभ्रमु तो ॥ १५९॥
झणें=कदाचित, 
म्हणोनि विश्व सांवरले | एऱ्हवी युगांत होतें वोडवले।
जै महाशंख आस्फुरिले | कृष्णादिकीं ॥ १६०॥

तो घोष तरी उपसंहरला | परी पडिसाद होता राहिला ॥
तेणें दळभार विध्वंसिला | कौरवांचा ॥ १६१॥

तो जैसा गजघटाआंतु | सिंह लीला विदारितु।
तैसा हृदयातें भेदितु | कौरवांचिया ॥ १६२॥
गजघटाआंतु=हत्तीचा कळप

तो गाजत जंव आइकती | तंव उभेचि हिये घालिती।
एकमेकांते म्हणती | सावध रे सावध ॥ १६३॥
हिये घालिती=हृदयाचा ठाव सोडत

         अथ व्यवस्थितान् दृष्टवा धार्तराष्ट्रानं कपिध्वजः।
         प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पांडवः ॥ २०॥

तेथ बळें प्रौढीपुरते | जे महारथी वीर होते।
तिहीं पुनरपि दळातें | आवरिलें ॥ १६४॥
बळें=बलवान  प्रौढीपुरते=अनुभवी

मग सरिसपणें उठावले | दुणावटोनि उचलले।
तया दंडी क्षोभलें | लोकत्रय ॥ १६५॥
दुणावटोनि=दुप्पटीने  उचलले=उसळले

तेथ बाणवरी धनुर्धर | वर्षताती निरंतर।
जैसे प्रलयांत जलधर | अनिवार का ॥ १६६॥
जलधर=मेघ

तें देखलिया अर्जुनें | संतोष घेऊनि मने।
मग संभ्रमे दिठी सेने | घालितसे ॥ १६७॥

तंव संग्रामीं सज्ज जाहले | सकळ कौरव देखिले।
मग लीला धनुष्य उचलिले | पंडुकुमरें ॥ १६८॥

          हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
          अर्जुन उवाच - सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ २१।

ते वेळीं अर्जुन म्हणतसे देवा | आतां झडकरी रथु पेलावा।
नेऊनि मध्यें घालावा | दोहीं दळां ॥ १६९॥

         यावदेतान् निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
         कैर्मया सह योद्धव्यस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२॥

         योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागतः।
         धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकिर्षवः ॥ २३॥

जंव मी नावेक | हे सकळ वीर सैनिक।
न्याहळीन अशेख | झुंजते जे ॥ १७०॥
नावेक=क्षणभर  अशेख=सारे

एथ आले असती आघवे | परी कवणेंसी म्यां झुंजावे।
हे रणीं लागे पहावें | म्हणऊनियां ॥ १७१॥

बहुतकरुनि कौरव | हे आतुर दुःस्वभाव।
वाटिवांवीण हांव | बांधिती झुंजीं ॥ १७२॥
वाटिवांवीण=पुरुषार्थ .पराक्रम

झुंजाची आवडी धरती | परी संग्रामी धीर नव्हती।
हे सांगोनि रायाप्रती | काय संजयो म्हणे | १७३॥

                संजय उवाच: एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
                सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥ २४॥

आइका अर्जुन इतुकें बोलिला | तंव कृष्णें रथु पेलिला।
दोहीं सैन्यामाजि केला | उभा तेणें ॥ १७४॥

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