ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला२०७ते २४३ / कठीण शब्दाच्या अर्थासहित /संत ज्ञानेश्वर

Started by विक्रांत, May 13, 2016, 06:29:33 PM

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विक्रांत

ज्ञानेश्वरी / अध्याय पहिला /

         निमितानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
         न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ ३१ ॥

या कौरवां जरी वधावें | तरी युधिष्ठिरादिक कां न वधावे।
हे येर येर आघवे | गोत्रज आमुचे ॥ २०७ ॥

म्हणोनि जळो हें झुंज | प्रत्यया न ये मज।
एणें काय काज | महापापें ॥ २०८ ॥

देवा बहुतं परीं पाहता | एथ वोखटें होईल झुंजतां।
वर काहीं चुकवितां | लाभु आथी ॥ २०९ ॥

वोखटें=वाईट

         न काङक्षे विजयं कृष्ण न च राज्य सुखानि च।
         किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ ३२ ॥

         येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
         ते इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ ३३ ॥

तया विजयवृत्ती कांही | मज सर्वथा काज नाहीं।
एथ राज्य तरी कायी | हें पाहुनियां ॥ २१० ॥
काज= कामाचे
यां सकळांते वधावे | मग जे भोग भोगावे।
ते जळोत आघवे | पार्थु म्हणे ॥ २११ ॥

तेणें सुखेविण होईल | तै भलतेही साहिजेल।
वरि जीवितही वेंचिजेल | याचिलागीं ॥ २१२ ॥

परीं यासी घातु कीजे | मग आपण राज्य भोगिजे।
हे स्वप्नींही मन माझे | करूं न शके ॥ २१३ ॥

तरी आम्ही का जन्मावें | कवणालागीं जियावें।
जें वडिलां यां चिंतावें | विरुद्ध मनें ॥ २१४ ॥

पुत्रातें इप्सी कुळ | तयाचें कायि हेंचि फळ।
जे निर्दाळिजे केवळ | गोत्र आपुले ॥ २१५ ॥

इप्सी =इच्छा धरी निर्दाळिजे= नष्ट करणे 

हें मनींचि केवि धरिजे | आपण वज्राचेयां बोलिजे।
वरी घडे तरी कीजे | भले एयां ॥ २१६ ॥
वज्राचेयां=

आम्हीं जें जें जोडावें | तें समस्तीं इहीं भोगावें।
हे जीवितही उपकारावें | काजीं यांचां ॥ २१७ ॥

आम्ही दिगंतीचे भूपाळ | विभांडूनि सकळ।
मग संतोषविजे कुळ | आपुलें जें ॥ २१८ ॥

दिगंतीचे= सर्व ,अफाट , विभांडूनि= जिंकून

तेचि हे समस्त | परी कैसें कर्म विपरीत।
जे जाहले असती उद्यत | झुंजावया ॥ २१९ ॥

उद्यत=तयार सज्ज

अंतौरिया कुमरें | सांडोनियां भांडारें।
शस्त्राग्रीं जिव्हारें | आरोपुनी ॥ २२० ॥

अंतौरिया= स्त्रिया कुमरें=मुले जिव्हारें=मर्मस्थानी

ऐसियांते कैसेनि मारुं | कवणावरी शस्त्र धरूं।
निज हृदया करूं | घातु केवीं ॥ २२१ ॥

          आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहः।
          मातुलः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥ ३४॥

हे नेणसी तूं कवण | परी पैल भीष्म द्रोण।
जयांचे उपकार असाधारण | आम्हां बहुत ॥ २२२ ॥

एथ शालक सासरे मातुळ | आणी बंधु कीं हें सकळ।
पुत्र नातू केवळ | इष्टही असती ॥ २२३ ॥

शालक=मेहुणे मातुळ=मामा

अवधारीं अति जवळिकेचे | हे सकळही सोयरे आमुचे।
म्हणोनि दोष आथि वाचे | बोलतांचि ॥ २२४ ॥

         एतान्न हन्तुमिछामि घ्नतोऽपि मघुसूदन।
         अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं न महीकृते ॥ ३५ ॥

हे वरी भलतें करितु | आंताचि एथें मारितु।
परि आपण मनें घातु | न चिंतावा ॥ २२५ ॥

त्रैलोक्यींचे अनकळित | जरी राज्य होईल एथ।
तरी हें अनुचित | नाचरें मी ॥ २२६ ॥
अनकळित=निष्कंटक ,सहज

जरी आज एथ ऐसें कीजे | तरी कवणांचा मनीं उरिजे।
सांग मुख केवीं पाहिजे | तुझे कृष्णा ॥ २२७ ॥

          निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
          पापनेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥ ३६ ॥

जरी वधु करूनी गोत्रजांचा | तरी वसौटा होऊन दोषांचा।
मज जोडलासि तूं हातींचा | दूरी होसी ॥ २२८ ॥
वसौटा= घर, आश्रय .

कुळहरणीं पातकें | तिये आंगीं जडती अशेखें।
तयें वेळी तूं कवण कें | देखावासी ॥ २२९ ॥

अशेखें=संपूर्ण  कवण कें =कुणा कसा

जैसा उद्यानामाजीं अनळु | संचरला देखोनि प्रबळु।
मग क्षणभरी कोकिळु | स्थिर नोहे ॥ २३० ॥

अनळु =अग्नी

सकर्दम सरोवरु | अवलोकूनि चकोरु।
न सेवितु अव्हेरु | करूनि निघे ॥ २३१ ॥

सकर्दम==चिखलयुक्त

तयापरी तूं देवा | मज झकों न येसी मावा।
जरी पुण्याचा वोलावा | नाशिजेल ॥ २३२ ॥

झकों=झाकणे ,पाखर घालणे माव=माया प्रेम

          तस्मान्नार्हा वयं हन्तुम् धार्तराष्ट्रान्स्वबांधवान्।
          स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३७ ॥

म्हणोनि मी हें न करीं | इये संग्रामीं शस्त्र न धरीं।
हें किडाळ बहुतीं | परीं दिसतसे ॥ २३३ ॥
किडाळ =डाग ,दुष्कीर्तीकर
तुझा अंतराय होईल | मग सांगें आमचें काय उरेल।
तेणें दुःखे हियें फुटेल | तुजवीण कृष्णा ॥ २३४ ॥

अंतराय=दुरावा हियें=हृदय

म्हणावूनि कौरव हे वधिजती | मग आम्हीं भोग भोगिजती।
हे असो मात अघडती | अर्जुन म्हणे ॥ २३५ ॥

मात=गोष्ट अघडती= अशक्य (न घडेल )

          यद्यप्यते न पश्यंति लोभोपहृतचेतसः।
          कुलक्षयकृतंदोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८ ॥

          कथं ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
          कुलक्षयकृतम् दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९ ॥

हे अभिमानपदे भुलले | जरी पां संग्रामा आले।
तऱ्ही आम्हीं हित आपुलें | जाणावें लागे ॥ २३६ ॥

हें ऐसें कैसें करावें | जे आपुले आपण मारावे।
जाणत जाणतांचि सेवावें | कालकूट ॥ २३७ ॥

हां जी मार्गीं चालतां | पुढां सिंह जाहला अवचितां।
तो तंव चुकवितां | लाभु आथी ॥ २३८ ॥

असता प्रकाशु सांडावा | मग अंधकूप आश्रावा।
तरी तेथ कवणु देवा | लाभु सांगे ॥ २३९ ॥
अंधकूप=अंधारी विहीर

का समोर अग्नि देखोनी | जरी न वचिजे वोसंडोनी।
तरी क्षणा एका कवळूनि | जांळू सके ॥ २४०॥

वचिजे=वाचणे  वोसंडोनी=टाळणे

तैसे दोष हे मूर्त | अंगी वाजों असती पहात।
हें जाणतांही केवीं एथ | प्रवर्तावें ॥ २४१ ॥

वाजों=पिडू लागतात आदळू लागतात 

ऐसें पार्थ तिये अवसरीं | म्हणे देवा अवधारीं।
या कल्मषाची थोरी | सांगेन तुज ॥ २४२ ॥
कल्मषाची=पापाची