कारवाँ

Started by शिवाजी सांगळे, November 16, 2016, 05:06:14 PM

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शिवाजी सांगळे

कारवाँ

कुछ लम्हें कुछ पल
अनसुलझी पहेलियोंको
समेटते हुये लेकर चलते है...
रूकतेे नहीं कभी
किसी मोड़ पर, डगर पर
कैसा कारवाँ है यह?
पलों का? उन लम्हों का?
घड़ी कि सुई के साथ
जो चलता रहता है...
कुछ मेरी, कुछ तुम्हारी ओर
कुछ अपनी...
भावनांओ से खेलते हुये
घुमता रहता है,
दिन, महीने, साल
कब तक?... पता नहीं
शायद... चलेगा... कारवाँ
सुरज के अंत तक !

© शिवाजी सांगळे
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