भज गोविन्दम .. हिंदी कविता रूप में

Started by puneumesh, February 22, 2019, 02:47:23 PM

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भज गोविन्दम हिंदी कविता रूप में..उमेश वेंकटेश कुलकर्णी, D 1102 कुमार क्षितिज, सहकर नगर, पुणे, 411009, puneumesh@gmail.com

भज गोविन्दम हिंदी कविता रूप में..

भज गोविन्दम भज गोविन्दम
गोविन्दम भज मूढ़मते
अंत काल जब पास में आये
व्याकरण काम तब न आये- १

धनप्राप्ति का लालच त्यागो
सच्ची राह पे चलते जाओ
जो भी मिले वह तुम स्वीकारो
शांत चित्त से वक्त गुजरो - २

स्त्री काया का जाल नकारो
मोहावेश से दूरी रखलो
ये सब है काया की विष्ठा
चिंतन हो प्रतिपल निष्ठा - ३

कमल पत्र पर बूँद तरल है
वैसे जीवन बहु चंचल  है
रोग गर्व और दुख से मारा
त्रस्त बहुत है यह जग सारा – ४

जब तक धन तुम ला सकते हो
तब तक प्रेम पा सकते हो
जब ढल जाये उम्र सुहाना
बात भी सीधा करता कोई न - ५

जब तक प्राणपवन भीतर है
कुशल पूछने सब आते हैं
प्राणपवन ज्यों  बाहर जाए
धर्मपत्नी भी पास न आए - ६

बचपन बीता खेल कूद में
यौवन बीता स्त्री संगत में 
और बुढ़ापा चिंता खाए
याद प्रभु की कभी न आए - ७


कोई नहीं है पत्नी सुपुत्र
भवसागर है बहुत विचित्र
कौन है तू और आया कहांसे
जानले पहले सच्चे मनसे - ८

सत्संग से वैराग्य है मिलता
वैराग्य से विवेक है मिलता
और विवेक से ज्ञान है मिलता
ज्ञान से मुक्ति का द्वार है खुलता - ९

उम्र ढले तो काम व्यर्थ है
पानी सूखे तलाव व्यर्थ है
रिक्त हो धन परिवार व्यर्थ है
तत्त्व हो ज्ञात संसार व्यर्थ है - १०

गर्व चढ़े न यौवन-धन-बल
ए सब होंगे पल में हतबल
घिरे हैं माया से सारे
तुम प्रभु पाद का मार्ग धरो - ११

दिन और रात रोज़ आते हैं
मौसम बदलते ही रहते हैं
काल के खेल में उमर है ढलती
फिर भी इच्छा नहीं है मरती - १२

धन पत्नी का छोड़ो चिंता
सबका स्वामी उन्हें भी हरता
तीनो लोक में सज्जन संघ ही
भवसागर से तरनेकी नौका  - १३

जटा व मुंडन और लुञ्चित बाल
उदर पालन के हैं चाल
जानके सब कुछ यूँ अनजान
क्यों रेहता है तू नादान - १४

श्वेत केश और जर्जर तन
दन्त रहित है ओ आनन
झुका मेरु और काठ है हाथ
फिर भी न छूटे चाह का साथ  - १५

अस्त हो सूरज छायी ठण्ड
सेकते बैठा होकर तंग
लेकर औरों के जूठन   
फिर भी सताते बड़े सपन - १६

गए हों तीरथ या वृत पालन
उपास तपास या किया दान
जानलो सब कि ज्ञान बिना
सौ जन्मोंमें मुक्ति मिले न - १७

पेड़ की छाया मंदिर छात   
भूमि ही शय्या और एकांत
सुखों पे जो किया हो मात 
वैराग्य ऐसा तो ही सुख प्राप्त - १८

योग में हो या भोग में हो
संग में हो या संग बिना हो
जिसका मन है ब्रह्म में रमता
सुख ही सुख में सदा ओ रेहता - १९

किंचित ही गीताध्यान सही
गंगाजल अल्प पान सही
गोविन्द जाप एक बार सही
कोई बाल भी बांका करे नहीं - २०

फिर से आना फिर से जाना
फिर से मां के गर्भ में सोना
भवसागर है बहुत कठिन
नैया पार लगादो मेरे किसन - २१

फटे वस्त्र को पहनने वाले
पाप पुण्य से दूरीवाले 
योग ध्यान में रहनेवाले
बच्चों जैसे मस्ती में डोले - २२

कौन हूँ मैं और कौन है तू
कौन है माता और है ताता
ये सब जानले पहले तू
अंत में सबको त्याग दे तू - २३

तुजमें मुझमें विष्णु ही बसता
व्यर्थ ही कोप से क्यों है मरता 
विष्णु चरण गर है तुझे पाना
समान चित्त के मार्ग से जाना - २४

शत्रु मित्र पुत्र और भाई
द्वेष प्रेम से दुःख ही पाई 
भेद भाव के अग्नयान को
त्याग दो पेहेले फिर देखो – २५

काम क्रोध मोह और लालच
छोड़के पहले कर चिंतन
आत्मज्ञान के बिना भाई
संसार नरक की मिले खाई - २६

विष्णु सहस्र नाम जाप करो 
अजस्त्र रूप का ध्यान धरो
सज्जन संगत में रमो
दीनोंको धन दान करो - २७

सुख के लिए भोग जो करते
रोग ही रोग शरीर में घुलते
सभी शक्ति का अंत है निश्चित
फिर भी न छूटे घिनोने रीत - २८

धन और पीड़ा है साथ साथ
प्रतिपल स्मरण रहे ए बात
पुत्रों से भी आमिर है डरता
दुनिया को यह रीत सताता - २९

प्राणायाम हो मित अहारी हो
नित्य चिरंतन मनन करो
जाप समाधी करो निरंतर
ध्यान पे गाढ़ा ध्यान धरो - ३०

अदि शंकर कृत महाग्रंथ ये है
हिंदी कथन उमेश करता है 
ग्रन्थ प्रचंड के साया भी हो
ए ईश्वर की कृपा ही समझो

गुरुचरण आश्रित भक्त हो
भवसागर से मुक्ति हो
सभी इन्द्रिय और मन वश में हो
हृदय बसे प्रभु दरशन हो – ३१

काव्यानुवादकर्ता----
उमेश वेंकटेश कुलकर्णी
D 1102 कुमार क्षितिज
सहकर नगर, पुणे, 411009
puneumesh@gmail.com