क़ैद

Started by शिवाजी सांगळे, February 24, 2020, 12:27:34 AM

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शिवाजी सांगळे

क़ैद

चारदीवारी में क़ैद देखता हूँ खुद को
मन की गहराई में खोजता हूँ खुद को

कैसी है ये उदासी, खालीपन ये कैसा
यहां अंधेरी भीड़ में ढूंढता हूँ खुद को

चिंगारी जलती है रात में एक सीने में
लेकर सुनहरी लौ जलाता हूँ खुद को

उसपार खिडक़ी के उजाला चमकता
फिर भी अपनेमें डुबो लेता हूँ खुद को

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