II जय श्री कृष्ण II-II कृष्ण जन्माष्टमीकी हार्दिक बधाईया II-(कविता - अ)

Started by Atul Kaviraje, August 30, 2021, 02:14:01 PM

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Atul Kaviraje

                                  II जय श्री कृष्ण II
                        II  कृष्ण जन्माष्टमीकी हार्दिक बधाईया II
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                                     (कविता - अ)
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मित्रो,

     आज ,30-अगस्त-२०२१ , सोमवार का  दिन लेकर आया है श्री कृष्ण जन्माष्टमी (श्रीकृष्ण जयंती, गोकुळाष्टमी, कालाष्टमी) का शुभ दिन. मराठी कविता के  मेरे सभी कवी बंधू एवं, कवयित्री बहनो को गोकुळाष्टमी की बहोत सारी हार्दिक शुभेच्छाये. आईए, सुनीते इस पुनीत दिवस पर, कुछ कृष्ण रचनाये. 


                                    कृष्ण जन्माष्टमी पर कवितायें
                                         (कविता क्रमांक-१)
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नैन लख्यो जब कुंजन तैं,
बनि कै निकस्यो मटक्यो री।

सोहत कैसे हरा टटकौ,
सिर तैसो किरीट लसै लटक्यो री।

को 'रसखान कहै अटक्यो,
हटक्यो ब्रजलोग फिरैं भटक्यो री।

रूप अनूपम वा नट को,
हियरे अटक्यो, अटक्यो, अटक्यो री॥

जय जय श्री राधे !


                                       (कविता क्रमांक-2)
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तेरे प्रेम के सहारे...
मेरी साँस अब चलेगी,
जो तू नहीं तो कान्हा,
ये प्राण भी न होंगे...
हम तो तेरे दीवाने ,
तेरे प्रेम के पुजारी...
तेरे लिए जिए हैं,
तेरे लिए जिएँगे...
मेरी बाँह अब पकड़ लो...
मुझे प्रेम से जकड़ लो,
ये प्रेम की डगर पे जो चल पड़े कदम हैं....
तेरी शपथ है बाँके ये अब तो न रुकेंगे.


                                      (कविता क्रमांक-3)
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नन्हे कन्हैया छोटी दंतिया दिखाए,
पग घुंघरू बजाए प्यारी मुरली सुनाये।

मोर पंख मस्तक पर सुन्दर सजाये,
दूध दही सम्भालो मटकी फोड़न को आये I

कदंब के झूलों में वृन्दावन की गलियों में,
कन्हैया को ढूँढ़ते माँ यशोदा खूब बौराए।

गोवर्धन उठाने को गोपियों संग महारास को,
कालिया के मर्दन को कंस के संहार को I

गीता के पाठ को घर घर गुंजाने को,
कन्हैया छिप छिप के आये।

कन्हैया मंद मंद मुस्काये
कन्हैया जग में हैं आए,
कन्हैया कण कण समाये II


                                     (कविता क्रमांक-4)
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बांसुरी वादन से,
खिल जाते थे कमल
वृक्षों से आंसू बहने लगते,
स्वर में स्वर मिलाकर,
नाचने लगते थे मोर ।
गायें खड़े कर लेतीं थी कान,
पक्षी हो जाते थे मुग्ध,
ऐसी होती थी बांसुरी तान... ।
नदियां कल-कल स्वरों को,
बांसुरी के स्वरों में मिलाने को थी
उत्सुक साथ में बहाकर ले जाती थी,
उपहार कमल के पुष्पों के,
ताकि उनके चरणों में,
रख सके कुछ पूजा के फूल ।
ऐसा लगने लगता कि,
बांसुरी और नदी मिलकर,
करती थी कभी पूजा जब बजती थी बांसुरी,
घनश्याम पर बरसाने लगते,
जल अमृत की फुहारें अब समझ में आया,
जादुई आकर्षण का राज जो आज भी जीवित है,
बांसुरी की मधुर तान में माना हमने भी,
बांसुरी बजाना पर्यावरण की पूजा करने के समान है,
जो कि हर जीव में प्राण फूंकने की क्षमता रखती,
और सुनाई देती है कर्ण प्रिय बांसुरी ।


                          (साभार एवं सौजन्य-हिंदीजानकारी.इन)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-30.08.2021-सोमवार.