II श्री गुरु दत्तात्रेय II-दत्त जयंती-लेख क्रमांक-4

Started by Atul Kaviraje, December 18, 2021, 01:39:36 AM

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Atul Kaviraje

                                       II श्री गुरु दत्तात्रेय II
                                             दत्त  जयंती 
                                           लेख क्रमांक-4
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मित्रो,

     आज दिनांक-१८.१२.२०२१-शनिवार है. आज श्री गुरु दत्तात्रेय की दत्त-जयंती है. मराठी कविताके मेरे सभी हिंदी भाई-बहन, कवी-कवयित्री योको श्री  दत्त जयंती की हार्दिक शुभेच्छाये. इस पावन पर्व पर पढते है, लेख, महत्त्वपूर्ण जIनकारी, श्री दत्त पूजा विधी, जीवन परिचय, इतिहास, आरती, भजन एवं अन्य जIनकारी.

                                   दत्त जयंती---

                          ३. भगवान दत्तात्रेय का कार्य---

भगवान दत्तात्रेय स्वयं विष्णु के अवतार हैं । उनका कार्य है पालन करना, लोगों में भक्ति की लगन उत्पन्न करना तथा आदर्श तथा आनंदमयी जीवन व्यतीत कैसे करना है, यह सिखाना ।

                      ४. भगवान दत्तात्रेयद्वारा बनाए गए गुरु---

भगवान दत्तात्रेयने कुल२४ गुरु किए थे । इससे वे हमें सिखाते हैं कि हमें 'सदैव' सीखने की स्थिती में' रहना चाहिए । जो सीखने की स्थिती में रहता है, वही ज्ञान ग्रहण कर सकता है । आईए, इस दत्त जयंती को हम सदैव सीखने की स्थिती में रहकर आनंदमयी जीवन व्यतीत करने का निश्चय करेंगे । इसके लिए हम भगवान दत्तात्रेयद्वारा बनाए गए कुछ गुरुओं से परिचित होंगे ।

४ अ. पृथ्वी : हमें पृथ्वी के समान सहनशील होना चाहिए । शिशु अपनी माता की गोद में रहता है, उसे लात मारता है, उसके शरीरपर मल-मूत्र विसर्जन करता है; तब भी माता कदापि उसपर चिढती नहीं है । हम भी भूमिपर मलमूत्र विसर्जित करते हैं, खेत जोतते हैं, अर्थात भूमिपर हल चलाते हैं, तब भी वह सब चुपचाप सहन करती है । साथ ही वह बोये हुए अनाज से कई अधिक गुनाअनाज हमें पुन: लौटाती है ।

इसी प्रकार यदि किसीने हमारे लिए अपशब्दों का प्रयोग किया हो अथवा हमारा अपमान किया हो, तो बिना चिढे हमें उसे क्षमा कर, प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए । पृथ्वी का यह गुणआत्मसात करनेपर हम दूसरों को आनंद दे सकेंगे ।

४ आ. वायु : भले ही वायु किसी भी स्थानपर जाए, वह विरक्त रहता है । हम अयोग्य एवं गुणहीन बच्चों के सहवास में रहनेपर तुरंत उनके समान बन जाते हैं । इसलिए हमें वायु के समान विरक्त रहना चाहिए ।

४ इ. आकाश : आकाश के समान आत्मा भी चराचर वस्तुओं में व्याप्त है । वह सभी से एक समान व्यवहार करता है । उसका किसीसे भी शत्रुत्व न होने के कारण वह निर्मल है । हमें भी मन से निर्मल होने के लिए प्रयास करना चाहिए ।

४ ई. जल : हम में जल के समान सभी से स्नेहपूर्वक वर्तन करना चाहिए । जल भेदभाव नहीं करता है ।सभी से समान व्यवहार करता है । हम जिस पात्र में उसे रखते हैं,उसी का आकार वह धारण कर लेता है । उसी प्रकार हमें भी सभी के साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए । जल उच्च स्थान का त्याग कर निचले स्थानपर आता है । उसी प्रकार हमें भी अपने अहंकार त्याग कर शरणागत होना चाहिए ।

४ उ. अग्नि : अग्नि अंधेरे को मिटा देता है । हमें भी स्वयं एवं दूसरों के जीवन का अहंकाररूपी अज्ञान नष्ट करना चाहिए । ऐसा होनेपर ही हम स्वयं एवं समाज आनंदमयी जीवन व्यतीत कर सकेंगे । जिस प्रकार अग्नि की चिनगारी एक क्षण में बुझ जाती है ।उसी प्रकार हमारा देह भी क्षणभंगुर होता है । इसलिए व्यर्थ में उसका अभिमान रखने की अपेक्षा भगवान का अस्तित्व मान्य करना चाहिए । देह का अस्तित्व आज है परंतु कल नहीं होगा; किंतु'हम में स्थित आत्मा आज भी है एवं वह अनंत काल तक रहेगा',इसका भान हम में जागृत करने का दिवस दत्त जयंती है ।

४ ऊ. चंद्र : चंद्र अपनी शीतल किरणों से दूसरों को आनंद देता है। हमें भी अपने प्रत्येक कृत्य से अन्यों कोआनंद देना चाहिए । आज हमें स्वयं को यह भान कराना चाहिए;एवं भगवान दत्तात्रेय से प्रार्थना करनी चाहिए, 'हे दत्तात्रेय, आप जिस प्रकार अपने तेज से दूसरों को आनंद प्रदान करते हैं, उसी प्रकार मेरी भी बोल-चाल से अन्यों को आनंद प्रदान करने आने दें।' भगवान दत्तात्रेय के चरणों में इस प्रकार क्षमायाचना करें, 'हे भगवान दत्तात्रेय, आजतक मेरे कृत्यों से यदि किसी को पीडा पहुंची हो, तो मुझे क्षमा करें ।'

४ ए. सूर्य : सूर्य सभी को एक समान प्रकाश एवं उष्णता देते हैं ।

४ ऐ. अजगर : अजगर स्वयं पूर्णरूप से अपने प्रारब्धपर विश्वास रखकर निश्चिंत रहता है । जो प्राप्त होता है, उसे ही खाता है ।वह तीखा-मीठा (पसंद-नापसंद)को न देख व्यर्थ प्रलाप नहीं करता है । हमें भी अपने जीवन में जो भी प्राप्त होगा, उसे आनंद से स्वीकारना चाहिए ।

४ ओ. सागर : नदियोंद्वारा वर्षा ऋतु में अधिक मात्रा में जललानेपर भी सागर न तो हर्षित होता है और न ही दुःखी होता है ।इसी प्रकार हमें भी जीवन में भी कष्ट आनेपर दु:खी नहीं होना चाहिए अथवा अधिक मात्रा में सुख मिलनेपर उसी आनंद में डूब जाना चाहिए । प्रत्येक परिस्थिती में स्थिर एवं शांत रहना चाहिए ।

४ औ. बालक : बालक 'कोई मेरी पूछताछ करे अथवा मुझे सम्मान दे', ऐसा विचार कभी नहीं करता है, इसलिए वह सदैव प्रसन्न रहता है । सम्मान-अपमान की चिंता किए बिना सभी चिंताओं का परित्याग कर हमें बालक के समान व्यवहार करना चाहिए ।

४ अं. वृक्ष : वृक्ष सदैव परोपकार करता है । वह छाया, फल,फूल आदि सर्व दूसरों को दे देता है, किंतु दूसरों से किसी भी बात की कोई कामना नहीं रखता है । हमें भी यदि आनंदमय जीवन बिताना है, तो हमारा प्रत्येक कृत्य निरपेक्ष होना आवश्यक है ।


– श्री. राजेंद्र पावसकर (गुरुजी), पनवेल.
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                       (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-हिंदुजागृती.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-18.12.2021