चारोळी पावसाची-क्रमांक-34-भाव-विभोर चंद्र

Started by Atul Kaviraje, August 15, 2022, 01:44:55 AM

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Atul Kaviraje

                                     चारोळी पावसाची
                                        क्रमांक-34
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मित्र/मैत्रिणींनो,

     --नवं -चारोळीकाराची  कवी-कल्पना  ही  कधी  कधी  भन्नाट  चारोळी  सुचवून  जाते . तो  म्हणतोय , असेच  पावसाचे  दिवस  होते . आभाळी  ढग  भरून  आले  होते . पाहता  पाहता  पाऊस  सुरु  झाला . आणि  सर्व  धरेस  त्याने अवचित  कवेत  घेतले . हे  झाले  दिवसाचे  पावसाचे  येथले  आगमन . पण  पुढे  जाऊन  त्याला  काहीतरी  वेगळे  असे  सुचवायचे  आहे . तो  म्हणतो , की  पाऊस  जसा  दिवसा  पडतो , पडताना  जितका  मोहक  दिसतो , त्याहूनही  मोहक  तो  रात्री  पडताना  दिसतो . पुढे  तो  या  रात्री  पडणाऱ्या  पावसाचे  यथार्थ  वर्णन  करीत  आहे .

     त्याच्या  चारोळीतील  वर्णनानुसार , पावसाचे  दिवस  होते . सुंदर  रात्र  पडली  होती . आभाळी  ढग  जमून  आले  होते . अचानक  गार  वारा  सुटला , आणि  त्या -पाठोपाठ  पावसालाही  घेऊन  आला . रात्र  असल्यामुळे  वातावरणात  गारवा  जरा  जास्तच  जाणवू  लागला  होता . कृष्ण -जलदांनी , आकाश  हे  नेहमीच  झाकोळलेले  असते . पावसाळ्यात  दिवसा  जसे  सूर्याचे  दर्शन  दुर्लभ , तसे  रात्री  चंद्राचेही  दर्शन  तितकेच  दुर्लभ . या  ऋतूमध्ये , सलग  चार -चार  महिने  हे  चंद्र-सूर्य  कुठे  आणि  कसे  गायब  होतात , हे  गणित  या  चारोळीकारास  कधीच  सुटले  नव्हते .

      तर  चारोळीकार  पुढे  म्हणतोय , की  आज  पाऊस  पडता  पडता , अचानक  काहीसे  ढग  बाजूस  सरकले , आणि  मला  चक्क  चंद्राचे  दर्शन  झाले . आभाळाच्या  कृष्ण -पार्श्वभूमीवर  चंद्राच्या  पौर्णिमीचे  पूर्ण -बिंब  अतिशय  लकाकत  होते , त्याचा  प्रकाश  त्या  कृष्ण -ढगांवर  पडून  त्यांना  एक  विशिष्ट  चंदेरी  किनार  अIली  होती .त्या  रात्रीचे  असे  अलौकिक  चंद्राचे  शुभ्र -चंदेरी  रूप  पाहून , चारोळीकाराची  पाऊले  तिथेच  थबकली . अतिशय  उत्सुकतेने  तो  हा  नजारा  अनिमिष  नेत्रांनी  पाहू  लागला . पाऊस  सुरूच  होता . पावसाची  रिपरिप  थांबतच  नव्हती . अन  या  थोड्याच  काळात  चंद्राने  दिलेले  दर्शन  त्याला  अनोखे  भासू  लागले . असं  वाटतं  होत  की  जणू  काही , चंद्र  आपली  मनोदशा , मनोभाव  या  पावसाच्या  स्वरूपात  सांगत  आहे . तो  चक्क  रडत  आहे , आक्रांदीत आहे , रुदन  करीत  आहे . पावसाचे  पडणे  आणि  सोबत  चंद्राचे  हे भासमान  रडणे , त्याला  काहीतरी  सुचवीत  होते , सांगत  होते . आणि  ही  विलक्षण  कवी -कल्पना  मनात  येता -येताच , तो  चंद्र  रडत -रडत  थांबला  आणि  चक्क  त्याने  हसून  पुन्हा  त्या  ढगांपाठी  दडी  मारली , पुन्हा  त्या  ढगांआड  चंद्राचे  अस्तित्त्व  पूर्णपणे  लपले , लोपले . 

     भाव-विभोर चंद्र
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रात्री वारा सुटलेला,
आणि पाऊस पडत होता,
सहज वर पहिले तर चक्क,
चंद्र रडत होता.
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--नवं -चारोळीकार
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                 (साभार आणि सौजन्य-संदर्भ-मन माझे.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-15.08.2022-सोमवार.