विश्वमोहन उवाच-मानस की प्रस्तावना--क्रमांक-१

Started by Atul Kaviraje, September 25, 2022, 09:37:10 PM

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Atul Kaviraje

                                      "विश्वमोहन उवाच"
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मित्रो,

     आज पढते है, विश्वमोहन इनके "विश्वमोहन उवाच" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है-"मानस की प्रस्तावना"

                             मानस की प्रस्तावना--क्रमांक-१--
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     किसी भी ग्रंथ के प्रारम्भ की पंक्तियाँ उसमें अंतर्निहित सम्भावनाओं एवं उसके उद्देश्यों को इंगित करती हैं . कोई यज्ञ सम्पन्न करने निकले पथिक के माथे पर माँ के हाथों लगा यह दही अक्षत का टीका है जो उस यज्ञ में छिपी सम्भाव्यताओं की मंगल कामना तथा उसके लक्ष्यों की प्रथम प्रतिश्रुति है . दुनिया के महानतम ग्रंथों में शुमार महाकवि तुलसीदास विरचित रामचरितमानस एक लोक महाकाव्य है जो जन जन के  होठों पर अपनी पवित्र मीठास लिये चिरकाल से गुंजित है और अनंत पीढियों तक श्रद्धा और विश्वास की अमर रागीनियाँ बिखेरता रहेगा .

     आदिकवि वाल्मीकि की तुलना तुलसी से करें तो हम पाते हैं कि वाल्मीकि में कवित्व की वाग्धारा अकस्मात क्रौंच-वेदना की चोट से फूटी थी. करुणा-रस का वह तरल प्रवाह अपनी स्वाभाविक लय में फैलता चला गया, पसरता चला गया और अपने परिवेश को अपनी ज्ञान-गंगा से आप्लावित करता चला गया . सत के चित से साक्षत्कार ने मन के कोने कोने को भावनाओं के रस से सिक्त कर दिया . न किसी भूमिका के लिए अवकाश , न किसी निष्कर्ष की तलाश ! कोई प्रबन्ध नहीं, कोई उद्योग नहीं, कोई उद्यम नहीं .  सबकुछ अनायास, स्वाभाविक, स्वच्छन्द, उन्मुक्त,अविच्छिन्न और अविरल.

     तुलसी ने वाल्मीकि को पढ़ा . बालक रामबोला बाबा नरहरि की साया में पला, फला और फूला. उनकी आभा से निःसृत संस्कार की भागीरथी में भींगा, काशी के पाण्डित्य-परिपूर्ण प्रांगण में परम्परागत वेद को सीखा और तब जाकर वाल्मीकि रचित रामायण-गीत को जन-जन के मन में लोकभाषा और राम धुन में गुनगुनाया .गाँव-गँवई की ज़ुबान में तुलसी का  यह महाकाव्य ' रामचरितमानस ' विश्व साहित्य का सबसे सफल, सार्थक और अप्रतिम उद्यम रहा. लोकभाषा के लोकलुभावन प्रतीक और बिम्ब की मनमोहक अभिराम छटा में तुलसी ने आध्यात्म की अखंड सत्ता के परत-दर-परत खोल दिये . आम आदमी को अपनी ज़ुबान में अनोखी दास्तान मिली जिसे पढ़कर, गाकर और सुनकर वह धन्य-धन्य हो गया. जितनी बार पढ़े, उतने नये रहस्यों का उद्घाटन ! उतने नये सत्य से साक्षात्कार ! बिम्ब वही, अर्थ नवीन ! और वो नवलता भी ऐसी  जिसका पुराने से कोई विरोध नहीं, बल्कि ऐसा मानों पुण्डरिक में नया दल जुट गया हो.

     तुलसी अपनी रचना यात्रा पर अपने रसात्मक भावों की पूर्णता के साथ प्रयाण करते हैं . सबकुछ साफ साफ झलकता है उनके मानस पटल पर . रचना के आरम्भ में ही रचना की दशा और दिशा एवं इसके लक्ष्यों को परिलक्षित कर देते हैं. और शायद यह भी एक कारण हो कि जिस मानस की अभिव्यक्ति का मूल लोकभाषा हो, जहाँ अवधी के बगीचे में यत्र तत्र भोजपुरी और ब्रजभाषा के पुष्प मुस्कुराते हों उसका श्री गणेष तुलसी ने देवभाषा संस्कृत के सात श्लोकों की सुरभि बिखेरकर किया. बालकाण्ड के ये सात शुरुआती श्लोक इस पुनीत ग्रंथ के उद्देश्य, उसकी सजावट, लिखावट, बनावट और अदावत के सुस्पष्ट संकेत हैं . तुलसी ने आगे भी इसी अदा से अपने आख्यान की शैली को अलंकृत किया है. इतर काण्डों में भी देवभाषा में प्रस्तावना-स्तुति-गान की मंगल परम्परा का निर्वाह किया गया है .

     प्रस्तावना की औपचारिक परम्परा  का पालन तो पहले और सातवें श्लोक युग्म से ही सम्पन्न हो जाता . यथा – "अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और मंगलों की करनेवाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ . अनेक वेद, पुराण और शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपनी अंतरात्मा के सुख के लिये अत्यंत मनोहर भाषा मे विस्तृत करता है" .  ठीक वैसे ही जैसे भारत के संविधान की प्रस्तावना पर यदि विचार करें तो बात बस इतने से ही बन जाती है कि – "हम भारत के लोग .. इस संविधान को आत्मार्पित करते हैं .  किंतु संविधान की आत्मा और उसका दर्शन तो बीच की पंक्तियों में छूपा पड़ा है.  इसी तरह तुलसी के मानस के आध्यात्म और दर्शन की पाण्डुलिपि का प्रसार दूसरे से लेकर छठे श्लोक तक है. और यदि इसे हम उलटकर पढ़ें तो पूरी बात सोलहो आने समझ में आ जाती है .

--विश्वमोहन
(Saturday, 20 December 2014)
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              (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-विश्वमोहन उवाच.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-25.09.2022-रविवार.