गलथेथरई-अंतर आई.आई.टी. और जे.एन.यु. का !--क्रमांक-2

Started by Atul Kaviraje, September 25, 2022, 09:43:44 PM

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Atul Kaviraje

                                       "गलथेथरई"
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मित्रो,

     आज पढते है, "गलथेथरई" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "अंतर आई.आई.टी. और जे.एन.यु. का !"

              अंतर आई.आई.टी. और जे.एन.यु. का !--क्रमांक-2--
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     आज आइन्स्टीन के गुरुत्वीय तरंग की परिकल्पना के करीब १०० वर्ष बीत गए. पर, वैज्ञानिकों ने अपने अदम्य शोध से प्रायोगिक तौर पर उन तरंगों की उपस्थिति को खोज निकाला है और अब तो भौतिकी का नोबल पुरस्कार इन्ही वैज्ञानिकों को मिल गया है. ये तरंगे कथित तौर पर १.२ बिलियन वर्ष पहले किसी दो ब्लैक होल के टकराने से उत्पन्न हुई थी .और आगे हम अब यह आशा भी कर सकते हैं कि आइन्स्टीन की कल्पनाओं की गुत्थी पर यूं हीं पड़ताल की प्रक्रिया जारी रही तो शीघ्र ही इस सृष्टि के निर्माण का सूत्र भी हमारे हाथ होगा !

     अब हम अपने दूसरे प्रिय नायक समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स की बात करें. समाज में अर्थ के बंटवारे की पड़ताल मार्क्स ने उत्पादन के साधन के स्वामित्व के अलोक में की. उन्होंने दो वर्ग चिन्हित किये . एक इन साधनों का प्रभु - 'बुर्जुआ' वर्ग, और दूसरा इस पर आश्रित श्रमिक वर्ग - 'सर्वहारा'.  'दोनों के मध्य की विषमता और एक के द्वारा दूसरे के शोषण और दमन की त्रासद प्रक्रिया असंतोष के गहरे बीज बोती है. उत्पाद का सरप्लस मालिक का खज़ाना भरता है और नौकर तिल तिल कर मरता है. अपनी ही बनायी वस्तु जब निर्माता श्रमिक को बाज़ार में खट्टे अंगूर की तरह अप्राप्य नज़र आती है तो उसमे गहन विरसता का भाव उत्पन्न हो जाता है और यहाँ से शुरू होती है श्रमिक मन में असंतोष के गहराने की तीव्र प्रक्रिया. बुर्जुआ 'थीसिस' के विपरीत एक विद्रोही सर्वहारा 'एंटी थीसिस' जन्म लेना शुरू होता है और इन दो प्रबल 'ध्रुवों' के मध्य विद्रोह की भावना घनीभूत होकर इतनी तीक्ष्ण हो जाती है कि 'वर्ग संघर्ष' का सूत्रपात होता है जिसकी परिणति वर्गहीन समाज के 'सिंथेसिस' में होती है.

     मार्क्स ने बड़ी तार्किक कुशलता और वैज्ञानिक ढंग से इस प्रक्रिया के आलोक में समाज की समस्त संस्थाओं यथा, शिक्षा, धर्म, विवाह आदि की व्याख्या बुर्जुआ वर्ग के हितों को साधने वाले टूल के रूप में की. आप उनके सिद्धांतों से सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन उनकी व्याख्या और मीमांसा की वैज्ञानिकता पर दांतों तले अंगुली दबाने के सिवा कुछ नहीं बचता. उनकी अद्भुत सामजिक आर्थिक विवेचना के 'मैटेरिअल डाईलेकटीज्म' पर हेगेल और ऐंजल्स के दार्शनिक द्वैत का असर बतलाते हैं. उन्होंने बड़ी दक्षता से समाज में क्रांतिकारी संघर्ष की अवधारणा रखी.

     बड़ी तेजी से समकालीन परिवेश में मार्क्स की अवधारणा अपना जादुई असर दिखाते दिखी. समाज का प्रबुद्ध शिक्षित वर्ग इस अद्भुत समाज-वैज्ञानिकी की ओर उन्मुख हुआ. एक नवीन बुद्धिजीवी धारा से सामाजिक धरा सिक्त हुई . समाज, साहित्य, संस्कृति सर्वत्र इसकी धूम सुनाई दी. पर, दुर्भाग्यवश यह विचार दर्शन अपने ऐसे कपूतों के हत्थे चढ़ा कि वाद और पंथ के दुर्गन्धमय पंक में धंसकर इसका बंटाधार हो गया. यह सामाजिक दर्शन राजनितिक कुचाल और सियासी स्वार्थ में फंस गया. मार्क्स की वैचारिक आत्मा के महत आदर्श  को उनके ही मार्क्सवादी कपूतों ने अपनी स्वार्थी सत्ता लोलुपता में छलनी छलनी कर दिया. समाज-परिवर्तन के इस अनोखे क्रांतिकारी दर्शन  को इन मार्क्स विध्वंसक कुलवीरों ने सत्ता का औज़ार बना लिया और इसकी इस कदर ह्त्या कर दी कि अब यह क्यूबा से मिटकर कोलकाता के रास्ते केरल में अपने पिंड दान की तैयारी कर रहा है.

     अपने इन दो सर्वप्रिय आदर्शों के उपरोक्त उद्वरणों के आलोक में मैं आपके समक्ष विज्ञानं के साधक आलोचक सपूतों और विज्ञानेतर शास्त्रों के अंध'पंथी' झंडाधारी कपूतों के बीच की रेखा को खींचना चाहता हूँ.  हमने दो प्रतिगामी सिद्धांत ,कणिका बनाम तरंग, के पुरोधा न्यूटन और आइन्स्टीन को समान रूप से पूजा और अपनाया. ऐसे भी विज्ञान में दो विपरीत ध्रुवों में आकर्षण ही होता है. उन्हें किसी ने  दक्षिणपंथी और वामपंथी डिक्लेयर कर अलग अलग झंडों के नीचे खड़ा कर लड़ाया नहीं. नतीज़ा आपके सामने है. संभवतः यहीं विज्ञान और अ-विज्ञान में अंतर है .

     यहीं आई.आई.टी. और जे.एन.यु. में अंतर है !     

--गलथेथरई !                         
(SUNDAY, 8 OCTOBER 2017)
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                 (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-वाचाल.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-25.09.2022-रविवार.