अपने मोर्चे पर-कभी चकराता जाकर प्राण पाइए--क्रमांक-१

Started by Atul Kaviraje, October 06, 2022, 09:19:26 PM

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Atul Kaviraje

                                   "अपने मोर्चे पर"
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मित्रो,

     आज पढते है, श्री नवीन जोशी, इनके "अपने मोर्चे पर" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "कभी चकराता जाकर प्राण पाइए"

                       कभी चकराता जाकर प्राण पाइए--क्रमांक-१--
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     चुनाव नतीजों ने सरकार गठन के लिए सौदेबाजी, उठापटक और जोड़-तोड़ की सारी आशंकाएँ एक झटके में खत्म कर दी थीं। अपनी व्यस्तताएँ और तनाव भी एकाएक कम हो गए। ऐसे में लखनऊ की भीषण गर्मी से तनिक निजात पाने की ललक इस बार हमें सपरिवार चकराता ले गई। देहरादून से करीब 95 किमी दूर लगभग 7000 फुट की ऊँचाई पर बसा छोटा-सा नगर चकराता उम्मीद से कहीं ज्यादा शीतल, शान्त और सुहावना मिला, जहाँ अभी पर्यटकों की अराजक भीड़ ने प्रकृति को कुरूप नहीं किया है। जंगल, पहाड़, पानी, वनस्पतियाँ और जीव-जन्तु अभी यहाँ मनुष्यों की अनावश्यक दखल से अपेक्षाकृत मुक्त हैं।

     23 मई की दोपहर बाद हम चकराता पहुँचे तो बाँज-बुरांश-देवदार के घने जंगलों में बादलों की छायाएँ उड़ने लगी थीं। मुख्य नगर से 7 किमी दूर एक छोटे और बिल्कुल शांत होटल पहुँचते-पहुँचते बारिश होने लगी। यात्रा की थकान उड़नछू हो गई। स्थानीय युवक बिट्टू चौहान ने पुलम और अखरोट के अपने बगीचे के बीच 7-8 कमरों का यह होटल विशाल चट्टानों वाली पहाड़ी की गोद में इस तरह बनाया है कि अतिथि ज्यादातर समय कमरा छोड़कर आंगन में ही बैठने-टहलने को मजबूर हो जाते हैं। हम फौरन बगीचे की सैर कर आए। अधपके पुलम लचकती शाखों से तोड़कर खाए। वनकाफल और हिसालू ढूँढ-ढूँढकर चखे और कच्चे किलमोड़े के हरे दानों को देखकर बचपन की यादों में बहुत पीछे तक जाते रहे। शाम बहुत ठण्डी हो गई थी लेकिन मन उतना ही सुकून से भर रहा था। साफ आसमान में चमकते तारों का ऐसा नजारा शहरों में दुर्लभ ही है और हमने दमकते सप्तऋषि मण्डल के ठीक नीचे बैठकर रात का खाना खाया। बिल्कुल घरेलू खाना।

     24 मई की सुबह हम 'टाइगर फाल्स' देखने गए। कोई पन्द्रह किमी दूर सड़क किनारे गाड़ी रुकी तो कल्पना करना भी कठिन था कि भारत के सुन्दरतम और सबसे ऊँचे झरनों में से एक यहीं कहीं नीचे बह रहा होगा। कतई भीड़ नहीं थी, बल्कि तीखी ढाल में टेढ़ी-मेड़ी पगडण्डी पर उतरने वाले हम अकेले थे। सड़क किनारे चाय की छोटी दुकान चलाने वाले ने लता को लाठी पकड़ा दी थी-'बहनजी, इसे ले जाइए, वर्ना दिक्कत होगी।' उसने पैसे की कोई बात नहीं की। और वापसी में भी कोई संकेत नहीं दिया।

     इतनी तीखी ढाल और खराब रास्ता कि एक बार तो हम बीच से ही लौटने को हो गए। डेढ़ किमी उतरना और फिर वापस चढ़ना- कैसे होगा? लेकिन हिम्मत की तो घण्टे भर बाद बहुत रोमांचकारी मोहक झरना हमारे सामने था। किसी ने बताया कि यह करीब 300 फुट ऊपर से गिरता है। अद्भुत। ऐसा सुन्दर झरना पहले नहीं देखा। हम वाह-वाह करते रह गए और कपड़े भीगने की चिंता किए बगैर मन तक तरबतर होते रहे। वहाँ मुश्किल से आठ-दस पर्यटक थे। चंद स्थानीय लड़के ईटों के अस्थाई चूल्हे और पिचकी डेगचियों में चाय बनाने और 'मैगी' उबालकर खिलाने को तैयार थे। बस। टाइगर फाल्स का अभी कतई व्यावसायीकरण नहीं हुआ है। चकराता में सैन्य छावनी के कारण विदेशी पर्यटकों के प्रवेश पर रोक है। हालांकि इसे ब्रितानियों ने बसाया था और 'टाइगर फाल्स' उन्ही का दिया नाम लगता है। झरना टाइगर की ही तरह गरजता है।

     देर तक झरने की फुहारों के बीच बैठे हम सोचते रहे कि उत्तराखण्ड की सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर क्या कर रही है? इतनी सुन्दर जगह को बेहतर पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करके स्थानीय गरीब जौनसारियों के जीवन में कुछ रंग लाए जा सकते हैं। सरकार ने यहाँ कुछ भी नहीं किया है। लेकिन फिर सोचा कि पर्यटन विकास के नाम पर हमारी सरकारें जो करती हैं वह प्रकृति को नष्ट करने और स्थानीय निवासियों का जीवन नरक बनाने के अलावा और होता ही क्या है। अच्छा है कि टाइगर फाल्स अपने स्वाभाविक स्वरूप में बह रहा है। चंद पर्यटक यहाँ आने का साहस करते हैं तो उन्हें प्रकृति का असली रूप-रंग तो नजर आता है।

--नवीन जोशी
(Wednesday, November 25, 2009)
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              (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-अपने मोर्चे पर.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-06.10.2022-गुरुवार.