अपने मोर्चे पर-कभी चकराता जाकर प्राण पाइए--क्रमांक-2

Started by Atul Kaviraje, October 06, 2022, 09:21:00 PM

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Atul Kaviraje

                                    "अपने मोर्चे पर"
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मित्रो,

     आज पढते है, श्री नवीन जोशी, इनके "अपने मोर्चे पर" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "कभी चकराता जाकर प्राण पाइए"

                       कभी चकराता जाकर प्राण पाइए--क्रमांक-2--
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     अब डेढ़ किमी की कठिन चढ़ाई चढ़नी थी। डर रहे थे कि कैसे चढ़ेंगे लेकिन इस झरने ने दुखते घुटनों और फूलती सांसों वाले हमको इतना तरोताजा कर दिया था कि पता ही नहीं चला कि कब ऊपर सड़क तक आ गए। हमें रास्ता दिखाने के लिए स्थानीय लड़का दीवान सिंह खुद ही साथ लग गया था। हमारे सफल अभियान के सुखद समापन पर उसने हँसकर कहा-'देखा, मैंने कहा था न कि कुछ कठिन नहीं है!' दीवान सातवीं में पढ़ता है और छुट्टी के दिन पर्यटकों को झरने का कठिन रास्ता दिखाता है।

     हम दो दिन-दो रात चकराता रहे। बिल्कुल निजर्न में बसा होटल हमें सुकून से भरता रहा। एक गुजराती परिवार वहाँ एक हफ्ते से ठहरा था। नौकरीशुदा अपने परदेसी बेटे-बेटी को भी उन्होंने वहीं बुला लिया था। परिवार के साथ छुट्टियाँ मनाने का यह कितना बढ़िया तरीका है- सारा समय अपना। न नाते-रिश्तेदार, न मित्र, न पार्टियाँ। और सबसे बड़ा सुकून यह कि मोबाइल की घण्टी यहाँ विरले ही बजती है। आसपास घूमने के लिए कई जगह हैं- जैसे देववन, जहाँ विशाल देवदार अचंभित करते हैं। लेकिन हम घूमने और अपने को थकाने नहीं गए थे। इसलिए ऐसी जगह चुपचाप पड़े रहना, प्रकृति को देखना और उसे सुनना-सराहना ही पर्याप्त लगा। टाइगर फाल्स को छोड़कर कही गए ही नहीं।

     25 मई को वापसी का रास्ता हमने विकासनगर की बजाय मसूरी वाला चुना। चकराता से नीचे उतरे तो पूरी यमुना घाटी से लिपटी सर्पिल सड़क डराती-लुभाती रही। बाँज-बुरांश का घना जंगल बहुत दूर तक साथ रहा। यमुना में कितना कम पानी। अफसोस कि हमने अपनी नदियों का क्या हाल कर दिया है। मसूरी से पहले 'कै म्पटी फाल' के पास एक किमी तक सड़क के दोनों तरफ बसों और कारों का काफिला रास्ता जाम किए था। कैम्पटी फाल पर अराजक पर्यटकों ने हल्ला जैसा बोल रखा था। अत्यंत रोमांचक टाइगर फाल्स देखकर आए हम लोगों की कोई रुचि कैम्पटी फाल में नहीं थी। इसे पहले भी देखा है। भीड़ और भीषण गन्दगी से कैम्पटी फाल का सारा सौन्दर्य जाता रहा है।

     दोपहर की धूप में मसूरी में काफी गर्मी थी। माल रोड, रेस्तरां और दुकानों पर पर्यटकों की भीड़ टूटी पड़ी थी। इतनी भाषा-बोलियाँ सुनने को मिलीं कि भारत की विशालता और विविधता का सहज ही साक्षात हो गया। मसूरी से भी हम घण्टे भर में भाग लिए। देहरादून होते हुए हरिद्वार-ऋषिकेश। दोनों जगह बहुत भीड़ और उमस भरी गर्मी। ऋषिकेश में गंगा किनारे कुछ देर बैठे। गंगा भी अब कहाँ गंगा रह गई। घाटों से दूर सहमी-सी बहती पतली धारा। क्या ये नदियाँ फिर कभी हहरा कर बहेंगी? बचपन में देखा-सुना इनका भव्य रूप और कल-कल निनाद क्या कभी लौटेगा?

     चकराता की यह यात्रा हमें शांति और आनन्द से भर गई थी। नदियों का दुख मन में भर कर हम उस सुख को खोना नहीं चाहते। इसलिए नजरें फेर कर चुपचाप लौट आए।

     लखनऊ में फिर बेहद चिपचिपी गर्मी है और बेशुमार भीड़। मगर मन के कोने से चकराता की शांत, शीतल वादियाँ और बाँज-बुरांश-देवदार के घने वन राहत पहुँचाते रहेंगे। फिर-फिर वहाँ जाने को मन करेगा।

     याद आती है अज्ञेय की कविता-

पाश्र्व गिरि का नम्र
चीड़ों पर डगर चढ़ती उमंगों-सी
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा
मैंने आह भर देखा
दिया मन को दिलासा फिर आऊंगा
भले बरस-दिन-अनगिन-युगों बाद
क्षितिज ने पलक सी खोली
तमक कर दामिनी बोली
अरे यायावर, रहेगा याद ?

--नवीन जोशी
(Wednesday, November 25, 2009)
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              (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-अपने मोर्चे पर.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-06.10.2022-गुरुवार.