बहुत-कुछ-अनबोलों की बीमारी--क्रमांक-१

Started by Atul Kaviraje, October 16, 2022, 10:26:45 PM

Previous topic - Next topic

Atul Kaviraje

                                    "बहुत-कुछ"
                                   ------------

मित्रो,

     आज पढते है, लक्ष्मण बिश्नोई 'लक्ष्य', इनके "बहुत-कुछ" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "अनबोलों की बीमारी"

                           अनबोलों की बीमारी--क्रमांक-१--
                          ----------------------------

     बात तब से शुरू होती है, जब आधे अफ्रीका पर अंग्रेज़ी राज था। केपटाउन से काहिरा तक। आज के ज़ाम्बिया-ज़िम्बाब्वे देश तब उत्तरी - दक्षिणी रोडेशिया कहे जाते थे। एक हीरों की खानों का ठेकेदार हुआ था सेसिल रोड्स नाम का। ठेकेदारी में मोटा माल कमा कर वह अफ्रीका की सियासत में भी बड़ा नाम रहा। जहाँ उसकी कम्पनी ने राज किया, वही जगह अंग्रेजों के लिए रोडेशिया हुई।

     यहीं, उत्तरी रोडेशिया में साल 1929 की गर्मियों में मवेशियों में एक नई बीमारी आई। पीढ़ियों से पशु पालने वाले लोगों ने भी ऐसा कोई रोग पहले देखा सुना नहीं था। इस के मरीज़ मवेशियों के पूरे शरीर पर उभरी हुई छोटी छोटी घुण्डियाँ दिखने लगती थी। जो हफ़्ते - दस दिन तक बनी रहती थी।

     चमड़ी में इन उभारों को देख वहाँ के मवेशियों के डॉक्टरों को लगा कि हो न हो, कीड़ों-मकोड़ों के काटने से सूजन आई है।

     चमड़ी के रोगों के लिए अंग्रेज़ तब 'डुबकी' को रामबाण माना करते थे। डुबकी यानि संखिये ज़हर (आर्सेनिक) घुले पानी में गायों को गोता लगवाना। इस के लिए वहां की सरकार गांव खेड़ों में लगभग तीन फीट चौड़े और पांच फीट गहरे नाले बनवाती थीं। इन नालों में आर्सेनिक का घोल भरा जाता और फिर पशुओं को थोड़े थोड़े दिनों के अंतर से डुबकी लगवाई जाती। इससे उन के शरीर पर चिपके कीड़े-मकोड़े, जूं, चीचड़ आदि हट जाया करते थे।

     गाँठों वाली गायों को भी इन नालों में डुबकी लगवाई गई। रोग मिटा नहीं, उलटे ज़्यादा संखिये से चमड़ी और उधड़ गई। अंग्रेज़ बड़े हैरान हुए कि डुबकी ने काम नहीं किया। कहा गया कि शायद कोई ज़हरीला झाड़ खा लेने से यह रोग हुआ है। तीसरा कोई कारण किसी को सूझा नहीं।

     लेकिन एक तो उस साल थोड़े ही दिनों में बीमारी एकबारगी शांत रह गई थी, दूसरी बात- वहाँ के जानवरों में तब खुरपके का ज़ोर ज़्यादा था, इस बीमारी के मामले छिटपुट थे, इसलिए इन घुण्डियों की बात आई गई हो गई।

     पन्द्रह साल बाद 1944 में बीमारी ने पहली बार भयानक रूप धारण किया। पहली जगह से पन्द्रह सौ किलोमीटर दूर, दक्षिण अफ्रीका में। यहाँ के रहवासी दुधारू गायों के बड़े बड़े झुण्ड रखा करते थे। ये पूरे के पूरे झुंड घुण्डियों से भर गए। अफ्रीकान किसानों ने इस बीमारी को नाम दिया - क्नोप-वेल-सिएक्ते। क्नोप यानि घुण्डी, वेल यानि चमड़ी और सिएक्ते यानि बीमारी। वह बीमारी जिस में चमड़ी पर घुण्डियाँ बन जाती है। इसी क्नोपवेलसिएक्ते को अंग्रेज़ी में लम्पी स्किन डिज़ीज कहा गया।

     तब दक्षिण अफ्रीका में कुल अस्सी लाख गायों को घुण्डियों वाली बीमारी हुई थी। इन में से लगभग लाख-डेढ़ लाख गाएं खेत रही। कभी देश के इस कोने में तो, कभी उस कोने में बीमारी फूटती-फैलती रही। यह तांडव तब तक चला जब तक कि वहाँ के वैज्ञानिकों ने इसका वायरस खोज कर उसकी वैक्सीन न बना ली।

     इन बातों को ज़माने बीत गए हैं, पर तब से लेकर अब तक यह बीमारी हर बार नई ज़मीन, नए जानवर तलाशती रहती है। नब्बे के दशक तक इसने पूरा अफ्रीका पार कर लिया था। लाखों की बलि लेकर, अरबों-खरबों का नुकसान करते हुए।

     अरबी जज़ीरे तक इसके पहुंच जाने के बाद यह लगभग तय ही था कि देर सबेर इसका अगला पड़ाव दक्षिण एशिया ही होना है। जुलाई उन्नीस में यह चटगाँव, बांग्लादेश में फूटी। शायद समंदर के रास्ते वहां पहुंची हो। इस के बीस दिन बाद यह हमारी सरजमीं पर थी। सरकारी कागज़ों में 12 अगस्त 2019 को ओडिशा में इसका पहला मामला दर्ज किया गया। इन तीन सालों में बंग-उत्कल से यह द्राविड़ प्रदेशों में पहुंची और वहां से मराठा-गुजरात-सिंध और पंजाब। अब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में इसके ब्रेकआउट्स की ख़बरें हैं।

--✍️ लक्ष्मण बिश्नोई लक्ष्य
(अगस्त 28, 2022)
-----------------------

               (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-बहुत-कुछ.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
              ------------------------------------------------

-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-16.10.2022-रविवार.