बहुत-कुछ-अनबोलों की बीमारी--क्रमांक-2

Started by Atul Kaviraje, October 16, 2022, 10:28:18 PM

Previous topic - Next topic

Atul Kaviraje

                                     "बहुत-कुछ"
                                    ------------

मित्रो,

     आज पढते है, लक्ष्मण बिश्नोई 'लक्ष्य', इनके "बहुत-कुछ" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "अनबोलों की बीमारी"

                           अनबोलों की बीमारी--क्रमांक-2--
                          ----------------------------

     हालांकि सरकारी कागजों के अनुसार भारत में यह अब भी सीमित प्रभाव के साथ कुछ जिलों में सिमटी हुई है। लेकिन सरकारी कागद की लेखी और अपनी आँखन की देखी में बहुत फ़र्क़ मिलता है। मारवाड़ में तो हाल हकीकत यह है कि दस कोस चलो तो सड़क किनारे पचास गायें ढेर पड़ी मिलती है। गोचर - गौशालाओं में गिद्धों की गोठ है। बाड़ों में- खेड़ों में, जहाँ देखो वहीं उधड़े डील वाली गायें खड़ी हैं। घुण्डियाँ-गाँठे, घाव और सूजन। घरों में बंधी गायों के भी तो यही हाल हैं। दुहारी की बेला में अनबोल बीमार गाय और गृहिणी दोनों आंसू ढलकाती दिखती हैं। गाय-बैल, बछिया-बछड़े सब अलग अलग कोनों में बंधे हैं, इस उम्मीद में कि जो बचे हैं, वो जैसे तैसे बचे रह जाएं।

     पराई पीड़ जानने वाले कुछ नौजवान गांवों से बाहर चार कनात तान कर बैठे हैं। फूटी हुई घुण्डियों के घावों पर रूई के फाहों से दवा लगाते, मल्हम पट्टी करते। पर इससे ज़्यादा उनका भी ज़ोर नहीं।

    बात केवल मारवाड़ की नहीं है, सोशल मीडिया पर लगभग पूरे उत्तर भारत से यही समाचार हैं। इधर इस साल के चौमासे में अच्छा मेह बरसा था। लोगों ने कहा कि गायों के भाग का बरसा है। पर बरसात के बाद गायों पर बिजली पड़ गई। वो भी साफ़ नीले आसमान से। जैसा अंग्रेज़ी में कहते हैं - अ बोल्ट फ्रॉम द ब्ल्यू। लोग नहीं जानते थे कि लम्पी आने वाली है। जो पहले से जानते थे, वे जान कर भी अनजान बने रहे। जिनके कन्धों पर भार था, उन्होंने कन्धे उचका दिए। अब जब लम्पी की लपटें तेज़ हो गई हैं, तो कुएं खोदें जाने शुरू हुए हैं।

     ऐसे ही डेढ़ सौ साल पहले, 1870 के साल में, भारत के मवेशियों में बड़े पैमाने पर एक रोग फैला था - रिंडरपेस्ट। पशुओं का प्लेग। इस बीमारी में आंख-नाक से पानी बहता रहता, देही दानों-दानों से भर जाती, जानवर खाना पीना छोड़ देते और दो चार दिन में भरे पूरे बाड़े खाली हो जाते। लम्पी की तरह इस रोग को भी पूरब में गौ-बसन्त और पश्चिम में माता कहा गया। उस समय माता से दसियों लाख पशु मारे गए। हर जिले में कुल जमा के शायद दस से बीस परसेंट। कहीं- कहीं एक तिहाई तक।

     तब तक भारत में सिविल वेटरनरी डिपार्टमेंट खुला नहीं था। मवेशियों के सरकारी डॉक्टर सिर्फ मिलिट्री में थे। मिलिट्री के पशुओं में भी उनका ध्यान घोड़ों पर ही रहा करता था। बैलों से खेती, घोड़ों से राज। गायों-बैलों से राज को भला क्या लेना देना। गाएं भगवान भरोसे ही थी। गांव वाले शीतला माता को मनाने के जतन करते रहते। जानवरों पर झाड़ फूंक की जाती। टोने टोटकों का आसरा भी लिया गया। रत्नागिरी में मरे हुए बाघ की जीभ पीस कर चूरण बनाया गया तो मेरठ वालों ने सियार मार कर गोचर में दफ़नाए।

--✍️ लक्ष्मण बिश्नोई लक्ष्य
(अगस्त 28, 2022)
-----------------------

               (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-बहुत-कुछ.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
              ------------------------------------------------

-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-16.10.2022-रविवार.