बहुत-कुछ-अनबोलों की बीमारी--क्रमांक-3

Started by Atul Kaviraje, October 16, 2022, 10:29:55 PM

Previous topic - Next topic

Atul Kaviraje

                                      "बहुत-कुछ"
                                     ------------

मित्रो,

     आज पढते है, लक्ष्मण बिश्नोई 'लक्ष्य', इनके "बहुत-कुछ" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख का शीर्षक है- "अनबोलों की बीमारी"

                           अनबोलों की बीमारी--क्रमांक-3--
                          ----------------------------

     गाएं अब भी भगवान भरोसे ही है। करें क्या ? हारे को हरि नाम! कच्छ में बैलों के गले में माता के ताबीज़ बांधे जा रहे हैं, मालवे में गायों पर मंतरा हुआ पानी छिड़का जा रहा है। टोटकों के लिए बाघ-सियार तो मिलने से रहे, बीकानेर में कई जगह बाड़ों में मरे हुए ऊँट की कपाल की हड्डी का धुंआ किया जा रहा है। झाड़ फूंक ज़रूर ऑन-कॉल और ऑन-लाइन हो गई है। दवा के नाम पर गुड़-हल्दी के लड्डू ही तब थे, गुड़-हल्दी के लड्डू ही अब हैं।

     ऐसे बदलने को बहुत कुछ बदला भी है। अब अलग से पशुपालन विभाग है, गांवों में मवेशियों के अस्पताल खुले हुए हैं। अपनी ओर से सरकारों की बीमारी पर काबू पाने की कोशिशें भी हैं। मैं सरकारी कोशिशों को कमतर नहीं दिखा रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ कि अभी और ज़्यादा कोशिशों की ज़रूरत है।

     आज भारत में लगभग बीस करोड़ गायें हैं। दुनिया की गायों की लगभग तीस परसेंट। इस कारण बाकी देशों की तुलना में हमारे लिए लम्पी से लड़ाई ज़्यादा मुश्किल है। ज़्यादा ज़रूरी भी है क्योंकि लम्पी के पैर जम जाने से डेयरी उद्योग के पैर उखड़ते देर नहीं लगेगी, जो लाखों परिवारों की रोजी रोटी का साधन है। माँ-जाये के बराबर गाय-जाये का सहारा मानने वाले लोगों पर यह बहुत बड़ा संकट है।

     पशुधन के मरने का नुकसान है सो तो है ही, जीवित रहे पशुओं में दूध सूख जाने का, बाँझ हो जाने का भी ख़तरा है।

     लम्पी का सीधा कोई इलाज़ नहीं है। एक तो घुण्डियों पर कोई दूजा इन्फेक्शन ना हो, इस का ध्यान रखा जाना ज़रूरी होता है, दूसरी बात- बुख़ार से राहत दिलाने के लिए दवाई दी जा सकती है। ये बातें तो अब तक हम जान ही चुके हैं।  एक दो बातें और हैं जो ध्यान में रखी जा सकती हैं। जैसे कि वयस्क पशुओं की तुलना में छोटे बछिया बछड़ों में यह रोग ज़्यादा आसानी से फैलता है। इसी तरह देशी और विदेशी नस्लों की इम्यूनिटी में भी अंतर पाया जाता है। देशी कूबड़ वाली प्रजातियाँ जो जेबू भी कही जाती हैं, उनकी इस बीमारी के लिए इम्यूनिटी बिना कूबड़ वाली प्रजातियों की तुलना में दुगुनी होती हैं। पहला कारण तो यही है कि जेबू गर्म मौसम की ही प्रजाति है, इसलिए गर्म देशों की बीमारियों के लिए इम्यून है। दूसरे, जेबू पर कोई मक्खी मच्छर बैठे, तो ये बदन में झुरझुरी उठा कर उनको आसानी से उड़ा लेते हैं। इसके लिए इनकी चमड़ी के नीचे बिल्कुल घोड़ों के जैसे ही पैनिकुलस कार्नोसस नाम की मांसपेशी की परत होती है, जिससे चाहने पर चमड़ी हिल सकती है। बिना कूबड़ वाली यूरोपीय नस्लों में यह परत इतनी विकसित नहीं होती। इसी तरह यूरोपियन गायों में भी जर्सी गाय लम्पी की लपेट में बहुत आसानी से आती है।

     कहने का अर्थ ये कि वैसे तो अभी सभी अनबोलों को ही इस बीमारी से बचाए जाने की, देखभाल की ज़रूरत है, लेकिन आपके घर में यदि जर्सी गाय है, या कोई भी यूरोपियन नस्ल की गाय है, या छोटे बछिया-बछड़े हैं, तो उनका खास ख्याल रखें।

     अब तक का पैटर्न देख कर कहा जा सकता है कि कुछ दिनों में यह बीमारी एकबारगी अपने आप बैठ जाएगी, यह तय है। लेकिन लय का मौसम मिलते ही फिर से फैल पड़ेगी। काबू में करने का, लगाम लगाने का तरीका टीका ही है।

     हम अपने घर-गांव की गायों की ज़िम्मेदारी लें, उनकी सार सम्भाल करें। टीके मिलने लगे हों तो टीके लगवा लें, नहीं तो बचाव के उपाय अपनाएं। बचाव ही उपचार है।

     आज के लिए इतना ही।

--✍️ लक्ष्मण बिश्नोई लक्ष्य
(अगस्त 28, 2022)
-----------------------

                (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-बहुत-कुछ.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
               ------------------------------------------------

-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-16.10.2022-रविवार.