साहित्यशिल्पी-भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति [आलेख] – क्रमांक-4

Started by Atul Kaviraje, November 07, 2022, 10:12:55 PM

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Atul Kaviraje

                                   "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति [आलेख]" 

                     भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति [आलेख] – क्रमांक-4--
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     हम पाश्चात्य देशों या विदेशों या अंग्रेजों की आलोचना उनके स्वछंद व्यव्हार को देखते हुए करते हैं परन्तु उनके विशेष गुणों जैसे देश-प्रेम, ईमानदारी, परिश्रम, कर्मठता को भूल जाते हैं। जिसके कारण आज वे विश्व के विकसित देश बने हुए हैं। सिर्फ उनके खुलेपन के व्यवहार के कारण उनकी अच्छाइयों की उपेक्षा करना और उनका विरोध करना कितना तर्कसंगत है?

     परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन ये परिवर्तन हमें पतन के ओर ले जायेगा । युवाओं को ऐसा करने से रोकना चाहिए नहीं जिस संस्कृति के बल पर हम गर्व महसूस करते है, पूरा विश्व आज भारतीय संस्कृति की ओर उन्मूख है लेकिन युवाओं की दीवानगी चिन्ता का विषय बनी हुई है। हमारे परिवर्तन का मतलब सकारात्मक होना चाहिए जो हमें अच्छाई से अच्छाई की ओर ले जाए । युवाओं की कुन्ठित मानसिकता को जल्द बदलना होगा और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी होगी । आज युवा ही अपनी संस्कृति के दुश्मन बने हुए हैं। अगर भारतीय संस्कृति न रही तो हम अपना अस्तित्व ही खो देगें। संस्कृति के बिना समाज में अनेक विसंगतियॉं फैलने लगेगी, जिसे रोकना अतिआवश्यक है। युवाओं को अपने संस्कृति का महत्व समझना चाहिये और उसकी रक्षा करनी चाहिए । भारतीय संस्कृति को सुदृढ़ और प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित बातों को अपनाना चाहिए :

(1) भारत को विज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति में आना पड़ेगा। और यह भी आवश्यक है कि उसकी गड़मड़ संस्कृति के स्थान पर एक समेकित भारतीय संस्कृति जीवन्त रूप में आए।
(2) प्रदेशों की अपनी भाषाओं में ही मुख्य शिक्षा हो तथा प्रदेशों का राजकाज भी। प्रमुख भारतीय भाषाओं में यह शक्ति है।
(3) अंग्रेजी की शिक्षा उतनी ही दी जाए जितनी एक विदेशी भाषा की उपयोगिता को देखते हुए आवश्यक है। अंग्रेजी को रोजी-रोटी के लिए कतई आवश्यक न बनाया जाए।
(4) अंग्रेजी का स्थान हिन्दी को नहीं लेना है ।
(5) मात्र उतनी ही हिन्दी की शिक्षा दी जाए जितने में सारे प्रदेशों का परस्पर संपर्क सध सके। हिन्दी को रोजी-रोटी के लिए आवश्यक न बनाया जाये। हिन्दी भाषियों को एक अन्य भारतीय भाषा में इतनी ही योग्यता प्राप्त करना अनिवार्य बनाया जाये जो उनके वैकल्पिक कार्य क्षेत्र के लिए उपयुक्त हो।
(6) एक सशक्त अनुवाद-सेना तैयार की जाए।
(7) सांस्कृतिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए ताकि भ्रष्टता का उन्मूलन किया जा सके।
(8) जब संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा तथा सम्पर्क भाषा बनाने का आदेश है¸ तथा क्षेत्रीय भाषाओं को अपने क्षेत्रों में राजकाज करने का आदेश है¸ और हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में अपना कार्य करने की पूरी क्षमता है¸ तब यह षड्यन्त्र नहीं तो क्या है जो इन भाषाओं को उचित स्थान नहीं देने देता? यह स्थिति बहुत दुखदायक है क्योंकि उदात्त या मानवीय संस्कृति ही जीवन सुखी बना सकती है।

     उपरोक्त ध्येय नितान्त वांछनीय हैं और यह हमारे आदान-प्रदान के सौहार्द पर¸ त्याग की भावना पर¸आपसी प्रेम की भावना पर तथा मुख्यत: अपने देश-प्रेम पर निर्भर करता है। प्रेम इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। हमारे राष्ट्र में मूलभूत रूप से सांस्कृतिक एकता है। हमारी मूल संस्कृति 'वसुधैव कुटुंबकम्' वाली संस्कृति है जिसका अस्तित्व सारे भारत में है। हमारे साहित्य में एकता है¸ एकरूपता नहीं¸ एकात्मता है। हम संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थो के ऊपर उठ सकते हैं। हमारी भाषाओं में अधुनातम विज्ञान-प्रौद्योगिकी को अभिव्यक्त करने की शक्ति है। भारत में न केवल विश्व-शक्ति बनने की क्षमता है वरन विश्व को भोगवाद के राक्षस से बचाने की भी क्षमता है।

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--डॉ. काजल बाजपेयी
संगणकीय भाषावैज्ञानिक
सी-डैक, पुणे
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-07.11.2022-सोमवार.