साहित्यशिल्पी-भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत] – क्रमांक-3

Started by Atul Kaviraje, November 10, 2022, 09:20:12 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत]" 

       भानगढ के भूतिया खंडहर - हमारे अनुभव [यात्रा वृतांत] – क्रमांक--3--
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     हम नगर के भीतर प्रविष्ठ हो गये थे। प्रतीत होता है कि नगर, मैदान से दोस्तरीय किलेबंदी द्वारा सुरक्षित किया गया था। परकोटे पर पाँच प्रवेश द्वार निर्मित हैं। टीलों पर खडी कुछ मीनारे और मंडप अब भी पूर्ववत हैं। सडक के दोनों ओर बाजार और मुख्य मार्ग से पृथक कुछ हवेलियाँ समझी जा सकती हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग सक्रिय है तथा देखने पर प्रतीत होता है कि नगर के कुछ हिस्से और बाजार को संरक्षित रखने का प्रयास किया गया है। नव-निर्माण बारीकी से किया जा रहा है जिससे प्राचीनता अपने स्वरूप में ही सुरक्षित रह सके।

     बरगद के अनेकों वृक्षों नें यहाँ की रहस्यमयता को बढ़ा दिया है। पूरे के पूरे मकान को अपनी गुंजलिका में लपेटे बिलकुल मौन उस बदगद के पास खडे हो कर वह पीडा महसूस की जा सकती है जब अनायास इस नगर पर सन्नाटे की जीत हुई होगी।

     कैसे लोग थे जिनके लिये कत्ल उन्माद था? कैसा समय था कि केवल राजाओं की साम्राज्यवादिता के लिये आबादियाँ बलि हो जाया करती थीं? सभ्यता लहू की ईटों पर खडी होती है, इन खंडहरों को देख कर तो यही प्रतीत होता है।

     बरगद शायद इस इतिहास पर शांति की इबारत लिखने को आतुर हैं, मानो अवशेष मिटा डालना चाहते हों। बदगद की शाखाओं और जडों नें जगह जगह से किलेबंदी की है, मजबूत पत्थरों की दीवारों को चरमरा दिया है।

     बाजार से महल की ओर बढते हुए ही सोमेश्वर मंदिर पर नजर जाती है।

     मंदिर की दीवारों पर की गयी नक्काशी दूर से ही दिखाई पड़ती है जो सुरक्षित है और सुन्दर भी। संभवत: डर के मनोविज्ञान नें इस नगर को बडा नुकसान नहीं होने दिया। मंदिर के साथ ही नगर के लिये पानी की व्यवस्था का प्राचीन तंत्र भी दिखायी पड़्ता है, परिसर में ही एक कूँआ भी हमारी निगाह से गुजरा। गोपीनाथ मंदिर अपने नक्काशीदार स्तंभों और तराशे हुए गुम्बद के कारण आकर्षक है। यही नहीं अवशेषों में कुछ मंदिर जिनमें गोपीनाथ, मंगला देवी तथा केशव राय प्रमुख हैं बहुत हद तक सुरक्षित हैं।

     बाजार से आगे बढते ही बड़ा सा घास का मैदान है जहाँ से कुछ पुरानी हवेलियाँ, दो भव्य मंदिर, एक मस्जिद और एक महल दिखायी पड़ते हैं।

     सूर्यास्त निकट था और परछाईया लम्बी होती जा रही थीं। मंदिरों नें बाँध लिया था और एक एक बारीकी को कैमरे में कैद करने की ललक नें शाम गहरा दी थी।

     अभी तो मुख्य महल देखना शेष रह गया था। हम अंधकार से पहले वहाँ पहुँचना चाहते थे और उत्कंठा थी अंधकार होने तक वहाँ रुकने की।

     पीछे मुड़ कर देखा तो कोई पर्यटक नहीं था, कामगर भी शाम होते ही जा चुके थे और अब केवल हम दो परिवार तथा एक गाईड। बच्चे बडी हिम्मत दिखा रहे थे और कमरे-दर-कमरे उनकी भूत की तलश जारी थी। मैदान पर खड़े रह कर ही मैने महल का गंभीरता से परीक्षण किया। दूर से नजर आते एक कक्ष पर कुछ संदिग्ध लगा। गाईड नें बताया कि यहाँ यदा-कदा तांत्रिक अनुष्ठान होते हैं और इसी लिये सामने की दीवारों पर लाल रंग और कुछ चिपका हुआ सा दिखाई पड रहा है। इस विवरण नें भय को कल्पना मानने की हमारी धारणा पर सीधे चोट की थी और पहली बार एक सिहरन उठी। हम फिर भी भीतर जाना चाहते थे। शाम अपना रंग गहरा करने लगी थी। महल की ओर बढते हुए एक बार फिर मैने पूरे परिवेश का जायजा लिया। भानगढ का अधिकतम अब केवल अवशेष ही है।

     महल की ओर जाती पथरीली सडक से उपर चढते हुए मैं हाँफ गया था। ठहर कर मैं दीवार टेक कर खड़ा हो गया नज़र सामनें सूरज डूबने के बाद बची हुई हल्की लाली पर जा टिकी। साथ ही आसमान पर चाँद भी था। मैं उन अवधारणाओं में खो गया जो इस महल को ले कर जनश्रुतियाँ बन गयी हैं। गाईड नें रास्ते पर से ही गुरु बालूनाथ की समाधि दिखा कर इस नगर के अंत की दास्तान सुनायी थी। कैसे अहं से भरे गुरु होंगे बालूनाथ और कितना उँचा उडने की चाहत राजे-मजाराजाओं को होती थी कि वे अपना या कि रिआया का हित भी महत्वाकांक्षाओं के लिये तौल दिया करते थे। यह किंवदंती है कि बालूनाथ नें नगर के निर्माण के समय ही राजा से कहा था कि जिस दिन तुम्हारे महल की परछाई इतनी लम्बी हो जायी कि मेरे आश्रमस्थल को छू ले, यह नगर नहीं रहेगा। ..... एक दिन महल की परछाई निषिद्ध आश्रम तक पहुँच ही गयी और फिर अभिशाप कारगर हो गया। एक ही रात में नगर वीरान हो गया था। मुझे अपने भीतर कड्वाहट सी महसूस हुई। अहं लोक-हित से बडे होते हैं क्या?

(क्रमशः)--

--राजीव रंजन प्रसाद
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-10.11.2022-गुरुवार.