साहित्यशिल्पी-सिसकते दीपों और रोती बातियों का दर्द मिटाना ही-दीपोत्सव-१

Started by Atul Kaviraje, November 13, 2022, 10:05:38 PM

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Atul Kaviraje

                                      "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "सिसकते दीपों और रोती बातियों का दर्द मिटाना ही-दीपोत्सव ० विकृत मानसिकता का दमन जरूरी [आलेख]" 

  सिसकते दीपों और रोती बातियों का दर्द मिटाना ही-दीपोत्सव ० विकृत मानसिकता का   दमन जरूरी [आलेख]--क्रमांक-१--
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     एक बार फिर हम और हमारा देश दीपों के त्योहार दीपावली को उत्सव पूर्वक मना रहा है। प्रत्येक हिन्दू धर्मावलंबी अपने घरों पर मां महालक्ष्मी की प्रतिष्ठा कर वैभव की कामना कर रहा है। महालक्ष्मी पूजन अथवा लक्ष्मी जी की प्रतिष्ठा का अर्थ ही संपन्नता को प्रतिष्ठित करना है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समृद्धि एवं ऐश्वर्य, धन और साधन की सुमंगल कामना के साथ मां लक्ष्मी के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर साधना में लीन होता है। भारत वर्ष के प्रत्येक घर मे हम झांके तो दृश्य इसी तरह का न होकर रोशनी के अभाव में अंधकार की दुनिया में खोया दिखाई पड़ता है। दीपावली की रात रोशन किये गए हजारों-लाखों दीप भी मिलकर उक्त अंधियारे को दूर नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए हमें यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिए कि हम राष्ट्रीय स्तर पर मां महालक्ष्मी की सम्यक प्रतिष्ठा करने में असफल हो रहे हैं। हम अपने घरों पर स्वयं अथवा विद्वान पंडितों द्वारा लक्ष्मी जी के आव्हान हेतु भले ही महामंत्रों का उचित और उच्च स्वरों में उच्चारण क्यों न कर रहे हो, इन मंत्रों का राष्ट्रीय स्तर पर अन्वेषण अब तक शेष ही है। हमारा अपने देश को गरीबी के अंधियारे से मुक्त कराने का अभियान न तो पूरा हो पाया है और न ही संकल्प शक्ति ऐसा कुछ दृश्य दिखा पा रही है।

     मनुष्य जीवन की मांग है कि उसे अपार खुशी मिले, उसे पुष्टता चाहिए, प्रकाश, सहानुभूति तथा स्नेह चाहिए। दीपावली ऐसा पर्व है जो स्नेह का निमित्त उत्पन्न करती है। प्रकाश और पुष्टि का निमित्त भी हमें इस पर्व में दिखाई पड़ता है। जिस तरह अमावश्या के अंधकार में दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य का प्रारब्ध चाहे कैसा भी रहा हो, ज्ञानरूपी प्रकाश और पुरुषार्थ के द्वारा वह अपने अंधकारमय जीवन मे प्रकाश का संचार कर सकता है। इसीलिए कहा गया है-

     असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतमगमय।।

     अर्थात हम असत्य से सत्य की ओर चले। अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का पुरषार्थ करें। मृत्यु से अमरता की ओर चलें। जन्मने मरने वाली देह को सत्य मानने की भूल त्याग दें। असत्य से ऊपर उठकर अपने सत्य, साक्षी स्वरूप में आएं। जिस प्रकार दीपावली के दिन संपूर्ण वातावरण प्रकाशमय हो जाता है, ठीक उसी प्रकार आपका कैरियर भी दैदीप्यमान हो सकता है, बस जरूरत है पहल करने की।

--प्रस्तुतकर्ता-डा. सूर्यकांत मिश्रा
राजनांदगांव (छ.ग.)
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-13.11.2022-रविवार.