साहित्यशिल्पी-जैसा स्वभाव वैसी सृष्टि- [आलेख]-ब-

Started by Atul Kaviraje, December 02, 2022, 09:15:08 PM

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Atul Kaviraje

                                      "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "जैसा स्वभाव वैसी सृष्टि" 

                         जैसा स्वभाव वैसी सृष्टि- [आलेख]--ब--
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     राम चरित मानस में आता है की जब राम को वनवास हुआ तो पूरी अयोद्ध्या ने आंसू बहाए यहाँ तक की लोग अपनी धन सम्पत्ति और घर परिवार छोड़कर वन में जाने तक को तयार हो गये उसका था की राम ने अपने जीवन में मनुष्यत्व का अवलंबन लिया और अपने श्रेठ कृतित्व से समाज और जन कल्याणकारी कार्य किये आज भी राम को याद करके हमारा मन अहोभाव से भर जाता है | वहीं दूसरी और रावण जो अपने समय का प्रकांड विद्वान् और शक्ति शाली सम्राट था वेदवेत्ता और ग्यानी इतना की जिससे ब्रह्मा और शिव भी प्रभावित थे उसने अपनी तपस्या से तीनो लोकों को अपने आधीन कर लिया था | रावण एक महान विद्वान ,वैज्ञानिक ,शक्तिशाली राजा एव स्वर्ण नगरी का मालिक था समस्त संसार पर उसका प्रभाव था, फिर भी लोग हर साल उसे जलाते है ऐसा क्यों करते है? उत्तर स्पष्ट है। राम ने मनुष्यत्व की रक्षा की और रावण ने मनुष्य बनकर भी मनुष्यता से गिर कर पापाचरण किया लोगों को सताया ,, अंहकार को बढ़ाया, अपनी नीयत को खराब किया ।। राम ने घर- घर जाकर मानवता का भरण पोषण और सेवा की।

     प्रत्येक मनुष्य के लिये जीवन में दो पहलू हैं एक भला दूसरा बुरा अब मनुष्य कौन से पहलू को अपनाता है ये उसके संस्कार पर निर्भर करता है। कई बार लोग गलत रास्ते पर जाते-जाते वापस लौट आते है ये उनके संस्कार का प्रभाव होता है | जो जिस मार्ग का अनुसरण करेगा उसी के आधार पर उसके जीवन का मूल्यांकन होता है। बुराई, जड़ता मनुष्य को मनुष्यत्व से नीचे गिराती हैं और भलाई, सहृदयता, सौजन्य उसे मनुष्य बनाते हैं, यही उसके चेतना धर्म के प्रतीक हैं। मनुष्य बनने के लिये हमारी चेतना ऊर्ध्वगामी हो। निम्नगामी न हो परन्तु आज हो इसके विपरीत रहा है लोग रात दिन हाय- हाय कर रहे हैं धन की, प्रतिष्ठा की, ऐश्वर्य कीर्ति की, सत्ता हथियाने की, अपने को बड़ा सिद्ध करने की ये प्रवृत्ति निम्नगामी है और इनसे ऊपर उठकर त्याग, सन्तोष, संयम, सदाचार शील, क्षमा, सत्य, मैत्री, परमार्थ आदि गुणों को जीवन में विकसित करना ऊर्ध्वगामी चेतना के लक्षण हैं।

     सम्पत्तिशाली, नेता, विद्वान्, लेखक, सम्पादक, शासक, शक्ति सम्पन्न, वैज्ञानिक होना अलग बात है और मनुष्य बनना दूसरी बात है। इन सबके साथ यदि मनुष्यता का सम्बन्ध नहीं है तो यह सब पत्थर पर मारे गये तीर की भाँति बेकार सिद्ध होंगे । यदि उक्त भौतिक सम्पत्तियाँ प्राप्त करके भी मनुष्यत्व नहीं है तो सब व्यर्थ हैं, केवल बाहरी बनावट मात्र हैं। जैसे लाश को बाहर से अच्छी तरह सजा कर उसे जीवित सिद्ध करना, किन्तु आखिर वह लाश ही रहेगी। चेतना उसे स्वीकार नहीं करेगी। उसी प्रकार बाहरी सोंदर्य का इतना महत्व नही है जितना की भीतरी सोंदर्य का हैं। हम इस प्रकार के बाह्य सौन्दर्य के भ्रम से बचकर अपने अंदर मनुष्यत्व के गुणों का अधिकाधिक विकास करना चाहिए जिससे की हमारा रावण, कुम्भकरण जैसा पतन न हो बल्कि हम मानवीय गुणों का विकास कर दुसरो में भी इन गुणों का विकास कर सके और समाज एवं राष्ट्र को श्रेष्ठ बना सकने में अपन योगदान दे सकें|

--पंकज "प्रखर "
कोटा (राज.)
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-02.12.2022-शुक्रवार.