पड़ोस-दीवार में एक आला रहता था-अ

Started by Atul Kaviraje, December 12, 2022, 09:39:08 PM

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Atul Kaviraje

                                      "पड़ोस"
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मित्रो,

     आज पढते है, डॉ. वर्षा सिंह, इनके "पड़ोस" इस ब्लॉग का एक लेख. इस लेख  का शीर्षक है- "दीवार में एक आला रहता था"

                          दीवार में एक आला रहता था--अ--
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     बचपन के उन दिनों में अक्सर मेरे पाँव मुझसे अनुमति लिए बगैर शहर से बाहर किसी खँडहर की ओर मुड़ जाते थे ৷  मैं अपने अकेलेपन में अपने भीतर भटकता हुआ पाँवों से जाने कहाँ कहाँ भटकता था ৷ हलधरपुरी मोहल्ला जहाँ खत्म होता था उस अंतिम छोर पर मराठा काल में बनी पत्थर की कुछ छतरियाँ थीं ৷ संभवतः वे किसी छोटे मोटे मराठा सरदार या योद्धा के समाधि स्मारक रहे होंगे ৷ उस समय भी राजा महाराजाओं के स्मारक तो शहर के भीतर बनाये जाते थे लेकिन अन्य सरदारों को मृत्यु के बाद दूर दराज ही जगह मिलती थी ৷ आम जनता को यह सुविधा प्राप्त नहीं थी ৷ उनका  जीना क्या और मरना क्या, उनकी स्मृति को तो कभी  किताबों में भी जगह नहीं मिली ৷

     उन छतरियों का वास्तुशिल्प देखने लायक था ৷ स्तंभों में पत्थर एक के ऊपर एक बहुत कुशलता के साथ जोड़े गए थे ৷ मैं उन पत्थरों को बहुत ध्यान से देखता था और उनमे उन्हें  जोड़ने वाले कारीगर की उँगलियों का स्पर्श महसूस करता था ৷ उसके आसपास कुछ पुराने ढहे हुए मकान भी थे ৷ बरसात के दिनों में पुराने मकानों की ढही हुई मिट्टी की दीवारों पर उगी हुई काई से अजीब सी गंध आती ৷ वह गंध मुझे उस दीवार के इतिहास से आती हुई मालूम होती थी ৷

     प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों को देखते हुए मेरे मन में विचार आता था कि जब सीमेंट की खोज नहीं हुई होगी तब इतनी मज़बूत इमारतें कैसे बनती होंगी ? बचपन में एक बार बाबूजी के साथ इलेक्शन ड्यूटी में भंडारा के पास के एक ऐतिहासिक कस्बे 'पवनी' जाना हुआ था ৷ वहाँ पांच छह सौ साल पहले का गोंड कालीन एक पुराना किला है  जो देखने में अधूरा सा लगता है ৷ उसके बहुत सारे हिस्से अब शेष नहीं हैं ৷ मैंने देखा उसके भग्नावशेष आसपास ही बिखरे हुए थे ৷ एक जगह पत्थरों को जोड़ने वाला गारा अपने जमे हुए शिल्प में उपस्थित था ৷  ऐसा लगता था जैसे उस समय किले के किसी भाग का निर्माण कार्य चल रहा होगा, उसी समय दुश्मन का आक्रमण हुआ होगा या कोई और व्यवधान आ गया होगा और उन्हें सब कुछ वैसे ही छोड़कर जाना पड़ा होगा ৷

     अपनी मजबूती में वह गारा पत्थर की तरह ही था ৷ वस्तुतः उन दिनों ईटों और पत्थरों  को जोड़ने के लिए ऐसे ही विभिन्न प्रकार के गारे बनाये जाते थे जिनमे चूना पत्थर, लाल मिट्टी, चाक मिटटी,  गोंद , बेल, का गूदा जैसी तमाम चीज़ें हुआ करती थीं ৷ फिर सन अठारह सौ चोवीस में इंग्लैंड में चूना पत्थर और मिट्टी से सीमेंट जैसी एक वस्तु का आविष्कार हुआ और सन अठारह सौ पचास में रेत,चूना पत्थर, चाक मिटटी जैसी वस्तुओं में उपस्थित कैल्शियम ऑक्साइड, अल्युमिनियम ऑक्साइड , सिलिकॉन ऑक्साइड जैसे तत्वों के माध्यम से सीमेंट बनने लगा ৷ आज के आधुनिक कंक्रीट के जंगल इसी सीमेंट की बदौलत पनप रहे हैं ৷ एक सच यह भी है कि आज चीन और भारत विश्व के सबसे बड़े सीमेंट निर्माता हैं ৷

     शहरों की गगनचुम्बी सीमेंट कंक्रीट से बनी इमारतों को देखकर यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि एक समय ऐसा था जब दीवारें केवल मिटटी की होती थीं या ईटों की जुड़ाई मिट्टी के गारे से की जाती थी ৷ उन्हें इतना चौड़ा बनाया जाता था कि वे आसानी से ढह ना सकें ৷ भंडारा के हमारे देशबंधु वार्ड के इस मकान में विशेष बात यह थी कि इस मकान की भीतरी बाहरी सभी दीवारें मिट्टी की थीं ৷ हम शर्म के कारण किसी से कहते नहीं थे कि हम मिट्टी के घर में रहते हैं लेकिन अवसर आने पर यह कहने से नहीं चूकते थे कि हमारे घर की दीवारें दो फीट मोटी हैं और इस वज़ह से गर्मी के दिनों में भी घर के भीतर ठंडक रहा करती है  । हम भारतीयों  की यही विशेषता है कि हम कभी कभी अपने अभावों को भी अपना सुख मान लेते हैं और अवसर आया तो औरों से बढ़ा चढ़ा कर अपने सुखों का बखान भी करते हैं৷

--शरद कोकास
(11 अक्तूबर 2021)
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             (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-शरद कोकास.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-12.12.2022-सोमवार.