साहित्यिक निबंध-निबंध क्रमांक-108-अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा

Started by Atul Kaviraje, December 15, 2022, 09:01:28 PM

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Atul Kaviraje

                                   "साहित्यिक निबंध"
                                  निबंध क्रमांक-108
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मित्रो,

     आईए, आज पढते है " हिंदी निबंध " इस विषय अंतर्गत, मशहूर लेखको के कुछ बहू-चर्चित "साहित्यिक निबंध." इस निबंध का विषय है-"अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा"
   
                             अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा--
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     कभी कभी महिलाएं पूछती है - क्या स्त्रियाँ भी घुमक्कड़ी कर सकती है, क्या उनको भी इस महाव्रत की दीक्षा लेनी चाहिए? इसके बारे में तो अलग अध्याय ही लिखा जाने वाला है, किन्तु यहाँ इतना कह देना है कि घुमक्कड़ धर्म ब्राह्मण-धर्म जैसा संकुचित धर्म नहीं है, जिसमें स्त्रियों के लिए स्थान न हो। स्त्रियाँ इसमें उतना ही अधिकार रखती है, जितना पुरूष। यदि वे जन्म सफल करके व्यक्ति और समाज के लिए कुछ करना चाहती हैं, तो उन्हें भी दोनों हाथों इस धर्म को स्वीकार करना चाहिए। घुमक्कड़ी धर्म छुड़ाने के लिए ही पुरूष ने बहुत से बंधन नारी के रास्ते लगाये हैं। बुद्ध ने सिर्फ पुरूषों के लिए ही घुमक्कड़ी करने का आदेश नहीं दिया, बल्कि स्त्रियों के लिए भी उनका यही उपदेश था।

     भारत के प्राचीन धर्मों में जैन धर्म भी है। जैन धर्म के प्रतिष्ठापक श्रवण महावीर कौन थे? वह भी घुमक्कड़-राज थे। घुमक्कड़ धर्म क आचरण में छोटी से बड़ी तक सभी बाधाआऔर उपाधियों को उन्होंने त्याग दिया था - घर-द्वार और नारी-संतान ही नहीं, वस्त्र का भी वर्जन कर दिया था। "करतल शिक्षा, तरूतल वास" तथा दिगम्बर को उन्होंने इसलिए अपनाया था कि निर्द्वन्द्व विचरण में कोई बाधा न रहे। श्वेतांबर-बन्धु दिगम्बर कहने के लिए नाराज न हो। वस्तुत: हमारे वैज्ञानिक महान् घुमक्कड़ कुछ बातों में दिगम्बरों की कल्पना के अनुसार थे और कुछ बातों में श्वेताम्बरों के उल्लेख के अनुसार। लेकिन इसमें तो दोनों संप्रदायों और बाहर के मर्मज्ञ भी सहमत है कि भगवान महावीर दूसरी, तीसरी नहीं, प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ थे। वह आजीवन घूमते ही रहे। वैशाली में जन्म लेकर विचरण करते ही पावा में उन्होंने अपना शरीर छोड़ा। बुद्ध और महावीर से बढ़कर यदि कोई त्याग, तपस्या और सहृदयता का दावा करता है, तो मैं उसे केवल दम्भी कहँूगा।

     आजकल कुटिया या आश्रम बनाकर तेली के बैल की तरह कोल्हू से बँधे कितने ही लोग अपने को अद्वितीय महात्मा कहते हैं या चेलों से कहलवाते हैं, लेकिन मैं तो कहँूगाा, घुमक्कड़ी की बात से यह नहीं मान लेना होगा कि दूसरे लोग ईश्वर के भरोसे गुफा या कोठरी में बैठकर सारी सिद्धियाँ पा गये या पा जाते हैं। यदि ऐसा होता तो शंकराचार्य, जो साक्षात् ब्रह्मस्वरूप थे, क्यों भारत के चारों कोनों की खाक छानते फिरे? शंकर को शंकर किसी ब्रह्मा ने नहीं बनाया, उन्हें बड़ा बनाने वाला था यही घुमक्कड़ी धर्म। शंकर बराबर घूमते रहे - आज केरल देश में थे तो कुछ महीनों बाद मिथिला में और अगले साल काश्मिर या हिमालय के किसी दूसरे भाग में। शंकर तरूणाई में ही शिवलोक सिधार गये, किन्तु थोड़े से जीवन में उन्होंने सिर्फ तीमन भाष्य ही नहीं लिखे, बल्कि अपने आचरण से अनुयायियों को वह घुमक्कड़ी का पाठ पढ़ा गये कि आज भी उनके पालन करने वाले सैकड़ों मिलते हैं। वास्को डिगामा के भारत पहँचने से बहुत पहले शंकर के शिष्य मास्को और यूरोप पहँचे थे। उनके साहसी शिष्य सिर्फ भारत के चारों धामों से ही संतुष्ट नहीं थे बल्कि उनमें से कितनों ने जाकर बाकू (रूस) में धूनी रमाई। एक ने पर्यटन करते हुए वोल्गा तट पर निजी नोबोब्राद के महामेले को देखा।

     रामानुज, माध्वाचार्य और वैष्णवाचार्यों के अनुयायी मुझे क्षमा करें, यदि मैं कहँू कि उन्होंने भारत में कूप मंडूकता के प्रचार में बड़ी सरगर्मी दिखायी। भला हो रामानन्द और चैतन्य का, जिन्होंने कि पंक के पंकज बनकर आदिकाल से चले जाते महान घुमक्कड़ धर्म की फिर से प्रतिष्ठापना की, जिसके फलस्वरूप प्रथम श्रेणी के तो नहीं, किन्तु द्वितीय श्रेणी के बहुत से घुमक्कड़ उनमें पैदा हुए। ये बेचारे वाकू की बड़ी ज्वालामई तक कैसे आते उनके लिए तो मानसरोवर तक पहँचना भी मुश्किल था। अपने हाथ से खाना बनाना, मांस अंडे से छू जाने पर भी धर्म का चला जाना, हाड़-तोड़ सर्दी के कारण हर लघुशंका से बाद बर्फीले पानी से हाथ धोना और हर महाशंका के बाद स्नान करना तो यमराज को निमंत्रण देना होता, इसलिए बेचारे फँक-फँककर ही घुमक्कडी कर सकते थे। इसमें किसे उज हो सकता है कि शैव हो या वैष्णव, वेदान्ती हो या सिद्धान्ती, सभी को आगे बढ़ाया केवल घुमक्कड़ धर्म ने।

     महान घुमक्कड़ - धर्म बौद्धधर्म का भारत से लुप्त होना क्या था कि तब कूप मंडूकता का हमारे देश में बोलबाला हो गया। सात शताब्दियाँ बीत गयी और इन सातों शताब्दियों में दासता और परतंत्रता हमारे देश में पैर तोड़कर बैठ गयी। यह कोई आकस्मिक बात नहीं थीं, समाज अगुआने चाहे कितना ही कूप मंडूप बनाना चाहा, लेकिन इस देश में ऐसे माई के लाल जब तक पैदा होते रहे, जिन्होंने कर्म पथ की ओर संकेत किया। हमारे इतिहास में गरू नानक का समय दूर का नहीं है, लेकिन अपने समय के वह महान घुमक्कड़ थे। उन्होंने भारत-भ्रमण को ही पर्याप्त नहीं समझा, ईरान और अरब तक का धावा मारा, घुमक्कड़ी किसी बड़े योग से कम सिद्धिदायिनी नहीं हैं और निर्भीक तो वह एक नम्बर का बना देती है।

--राहुल संकृत्यायन
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                      (साभार एवं सौजन्य-अभिव्यक्ती-हिंदी.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-15.12.2022-गुरुवार.