साहित्यिक निबंध-निबंध क्रमांक-109-अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा

Started by Atul Kaviraje, December 16, 2022, 08:51:48 PM

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Atul Kaviraje

                                    "साहित्यिक निबंध"
                                    निबंध क्रमांक-109
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मित्रो,

     आईए, आज पढते है " हिंदी निबंध " इस विषय अंतर्गत, मशहूर लेखको के कुछ बहू-चर्चित "साहित्यिक निबंध." इस निबंध का विषय है-"अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा"
   
                              अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा--
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     दूसरी शताब्दियों की बात छोड़िए, अभी शताब्दी भी नहीं बीती, इस देश से स्वामी दयानन्द को बिदा हुए। स्वामी दयानन्द को ऋषि दयानन्द किसने बनाया? घुमक्कड़ी धर्म ने। उन्होंने भारत के अधिक भागों का भ्रमण किया, पुस्तक लिखते, शास्त्रार्थ करते वह बराबर भ्रमण करते रहे। शास्त्रों को पढ़कर काशी के बड़े-बड़े पंडितों महामंडूक बनने में ही सफल होते रहे, इसलिए दयानन्द को सूक्तबुद्धि और तर्क प्रधान बनने का कारण शास्त्रों से अलग कहीं ढँढ़ना होगा और वह है उनका निरन्तर घुमक्कड़ी धर्म का सेवन। उन्होंने समुद्र-यात्रा करने, द्वीप-द्वीपान्तरों में जाने के विरूद्ध जितनी थोथी दलीलें दी जाती थी, सबको चिंदी-चिंदी करके उड़ा दिया और बताया कि मनुष्य स्थावर वृक्ष नहीं है, वह जंगल प्राणी है। चलना मनुष्य का धर्म है जिसने इसे छोड़ा वह मनुष्य होने का नहीं।

     बीसवीं शताब्दी के भारतीय घुमक्कड़ों की चर्चा करने की आवश्यकता नहीं। इतना लिखने से मालूम हो गया होगा कि संसार में यदि अनादि सनातन धर्म है तो वह घुमक्कड़ धर्म है। लेकिन वह संकुचित सम्प्रदाय नहीं है, वह आकाश की तरह महान है, समुद्र की तरह विशाल है। जिन धर्मों ने अधिक यश और महिमा प्राप्त की है, केवल घुमक्कड़ धर्म ही के कारण। प्रभु ईसा घुमक्कड़ थे उनके अनुयायी भी ऐसे घुमक्कड़ थे, जिन्होंने ईसा के संदेश को दुनियाँ के कोने-कोने में पहँुचाया।

     इतना कहने के बाद कोई संदेह नहीं रह गया कि घुमक्कड़ धर्म से बढ़कर दुनियाँ में धर्म नहीं है। धर्म की छोटी बात है, उसे घुमक्कड़ के साथ लगाना "महिमा घटी समुद्र की रावण बसा पड़ोस" वाली बात होगी। घुमक्कड़ होना आदमी के लिए परम सौभाग्य की बात है। यह पंथ अपने अनुयायी को मरने के बाद किसी काल्पनिक स्वर्ग का प्रलोभन नहीं देता, घुमक्कड़ी वह कर सकता है, जो निश्चिन्त है। किन साधनों से सम्पन्न होकर आदमी घुमक्कड़ बनने का अधिकारी हो सकता है, यह आगे बतलाया जायेगा। किन्तु घुमक्कड़ी के लिए चिन्ताहीन होना आवश्यक है, और चिन्ताहीन होने के लिए घुमक्कड़ी भी आवश्यक है। दोनों का आन्योन्यामय होना दूषण नहीं भूूषण है। घुमक्कड़ी से बढ़कर सुख कहाँ मिल सकता है आखिर चिन्ताहीन तो सुख का सबसे स्पष्ट रूप है। घुमक्कड़ों में कष्ट भी होते हैं लेकिन उसे उसी तरह समझिए, जैसे भोजन में मिर्च। मिर्च में यदि कड़वाहट न हो, तो क्या कोई मिर्च प्रेमी उसमें हाथ भी लगायेगा? वस्तुत: घुमक्कड़ी में कभी कभी होने वाले कड़वे अनुभव उसके रस को और बढ़ा देते हैं - उसी तरह जैसे काली पृष्ठभूमि में चित्र अधिक खिल उठता है।

     व्यक्ति के लिए घुमक्कड़ी से बढ़कर कोई नगद धर्म नहीं है। जाति का भविष्य घुमक्कडी पर ही निर्भर करता है। इसलिए मैं कहँूगा कि हरेक तरूण और तरूणी को घुमक्कड़ी व्रत ग्रहण करना चाहिए इसके विरूद्ध दिये जाने वाले सारे प्रमाणों को झूठ और व्यर्थ का समझना चाहिए। यदि माता-पिता विरोध करते हैं तो समझना चाहिए कि यह भी प्रह्लाद के माता-पिता के नवीन संस्करण है। यदि हितू बान्धव बाधा उपस्थित करते हैं तो समझना चाहिए कि वे दिवांध है। यदि धर्माचार्य कुछ उल्टा-सीधा तर्क देते हैं तो समझ लेना चाहिए कि इन्हीं ढोंगियों ने संसार को कभी सरल और सच्चे पथ पर चलने नहीं दिया। यदि राज्य और राजसी नेता अपनी कानूनी रूकावटे डालते हैं तो हजारो बार के तजुर्बा की हुई बात है कि महानदी के वेग की तरह घुमक्कड़ की गति को रोकने वाला दुनियाँ में कोई पैदा नहीं हुआ। बड़े बड़े कठोर पहरेवाली राज्य सीमाआ को घुमक्कड़ों ने आँख में धूल झोंककर पार कर लिया। मैंने स्वयं एक से अधिक बार किया है। पहली तिब्बत यात्रा में अंग्रेजों, नेपाल राज्य और तिब्बत के सीमा रक्षकों की आँख में धूल झोंक कर जाना पड़ा था।

     संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि यदि कोई तरूणी-तरूण घुमक्कड़ धर्म की दीक्षा लेता है - यह मैं अवश्य कहँगा कि यह दीक्षा वही ले सकता है जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस है - तो उसे किसी की बात नहीं सुननी चाहिए, न माता के आँसू बहने की परवाह करनी चाहिए न पिता के भय और उदासी होने की, न भूल से विवाह कर लायी अपनी पत्नी के रोने-धोने की और न किसी तरूणी को अभागे पति के कलपने की। बस शंकराचार्य के शब्दों में यही समझना चाहिए - "निस्त्रैगुण्यै पथ विचारत: को विधि: को निषेध:" और मेरे गुरू कपोतराज के वचन को अपना पथ प्रदर्शक बनाना चाहिए।

"सैर कर दुनियाँ की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ?
जिन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ"
- इस्माइल मेरठी

     दुनियाँ में मनुष्य जन्म एक ही बार होता है और जवानी भी केवल एक ही बार आती है। साहसी मनस्वी तरूण-तरूणियों को इस अवसर से हाथ नहीं धोना चाहिए। कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों! संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।

--राहुल संकृत्यायन
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                       (साभार एवं सौजन्य-अभिव्यक्ती-हिंदी.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-16.12.2022-शुक्रवार.