साहित्यशिल्पी-प्रदूषण की मार से बसंतोत्सव भी हारा

Started by Atul Kaviraje, December 18, 2022, 09:28:47 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "प्रदूषण की मार से बसंतोत्सव भी हारा" 

                         प्रदूषण की मार से बसंतोत्सव भी हारा-- 
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प्रदूषण की मार से बसंतोत्सव भी हारा - भविष्य में बसंत के लिए कहीं तरसना न पड़े- [आलेख]- डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
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     आनंद और खुशियों का पर्याय-बसंत ऋतु ही ऐसा मौसम है जो प्रत्येक प्राणी के जीवन में आनंद और खुशियों की बाहर लेकर आता है। न तो अधिक सर्द राते होती है और न ही तपाने वाली सूर्य की तपन। इस ऋतु काल में दिन और रात लगभग बराबर होते हंै। इस ऋतु का सौंदर्य ही हमोर स्वास्थ्य को पोषण देता है। इस लुभावने मौसम में हम सभी दु:खों को भूल जाते है। हमारा हृदय उत्साहित होता है। प्रकृति हरि चादर ओढ़े हमें खुशियों की सौगात प्रदान करती दिखाई पड़ती है। प्रत्येक ऋतु की तरह बसंत ऋतु भी तीन माह की होती हे किंतु इसकी खुशियां और वातावरण के सुकुन से यह कब विदा हो गयी यह पता ही नहीं चल पाता। पक्षियों की मधुर आवाज इसी ऋतु के आगमन की सूचक होती है। बसंत ऋतु का वातावरण और सामान्य तापमान बिना थके लोगों को अधिक कार्य करने की हिम्मत और प्रेरणा दे जाता है। केवल कवि की कल्पना अथवा वर्णन में ही बसंत की रमणियता नहीं पायी जाती। सचमुच ही बसंत के आगमन से प्रकृति का रूप अत्यंत मनोहर और नयन तृप्तकर हो उठता है। बसंत की उत्सवधर्मिता, मदन धर्मिता है। हम सबके अंदर एक सम्मोहन है। बिना आकर्षण के न तो जीवन है ओर न ही गति।

एक अनूठी आकर्षक ऋतु है बसंत की,
न सिर्फ बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी का
आशीर्वाद लेने की
अपितु स्वयं के मन के मौसम को
परख लेने की,
रिश्तों को, नवसंस्कार, नव-प्रमाण देने की,
संगीत की, हल्की-हल्की शत की,
नर्म-गर्म प्रीत की।।

     अब नहीं रहा, पहले जैसा बसंत- बसत ऋतु का सीधा संबंध प्रकृति से है। पेड़ों, पहाड़ों, नदियों और झीलों से बसंत का सीधा संबंध रहा है। आज की शहरी संस्कृति में बसंत पुराने समय जैसा उत्साह लेकर नहीं आता। प्राकृतिक वनस्पति का अभाव और प्रदूषित वातावरण ने बसंत ऋतु का आनंद कम कर दिया है। दौड़ती-भागती आपाधापी वलो जीवन चक्र ने बसंत की शोभा देखने तक का समय नहीं दिया है। बसंत कब आता है और कब चला जाता है, पता ही नहीं चलता। पेड़ों के पत्ते कब झड़े, बय नयी कोपले फूटी और कब कलियों ने अपना जादू चलाया, कब तितलियां और भौरों ने इनका रसास्वादन किया कुछ भी आनंद की विभूति में शामिल नहीं हो पा रहा है। आज प्रकृति से दूर होता जा रहा मनुष्य अपनी मिट्टी की खुशबु नहीं पहचान पा रहा है। इन सबके बावजूद बसंत अपनी छठा तो बिखेरता ही है। शहरीकरण के चलते बाग-बगीचों की दुनिया भी बे-रंग हो गयी है। हरियाली को संजोकर रखने वाली परंपरा अब दूर-दूर तक दिखायी नहीं पड़ रही है। बसंत की हरियाली के लिए आज की पीढ़ी क्या कुछ कर रही है यह भी हम बखूबी जान रहे है। अब घरों में प्राकृतिक फूल पौधों का स्थान मानव निर्मित आकर्षक पौधों ने ले लिया है। प्लास्टिक की दुनिया ने भी बसंत की बहार को कम करने में अहम भूमि निभायी है।

     लुप्त हो रही बसंत की परंपराएं-बसंत ऋतु का महत्व बसंत पंचमी पर्व के रूप में सामने आता रहा है। इसी दिन विद्या की देवी सरस्वती का ब्रम्हा के मानस से अवतरण हुआ। बसंत पंचमी के दिन जगह-जगह मां शारदा की पूजा अर्चना की जाती थी। स्कूलों में बच्चों की पट्टी में मां शारदा का चित्र बनाकर शिक्षकों द्वारा पूजा अर्चना करायी जाती थी। मां शारदा की कृपा से प्राप्त ज्ञान व कला के समावेश से मनुष्य जीवन में सुख व सौभाग्य प्राप्त करने का अवसर अब कम ही मिल पा रहा है। किताब और कलम की पूजा की परंपरा भी अब विलुप्ति पर है। इसी दिन दाम्पत्य जीवन में सुख की कामना से कामदेव औरउनकी पत्नी रति की पूजा भी की जाती है। बसंत ऋतु और वसंत पंचमी पर विद्यालयों में होने वाले संगीत, वाद-विवाद, खेलकूद एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी अब बीता इतिहास हो चुका है। मां सरस्वती की पूजा हर राशि वाले अलग पुष्प से कर सकते है। मेष और वृश्चिक राशि के छात्र लाल पुष्प, वृष और तुला राशि वाले श्वेत पुष्प, मिथुन और कन्या राशि वाले कमल पुष्प, सिंह राशि वाले लाल गुड्हल, धनु और मीन वाले पीले पुष्प, मकर और कुंभ राशि वाले नीले पुष्प से मां की अराधना कर फल प्राप्त कर सकते है।

--प्रस्तुतकर्ता-डा. सूर्यकांत मिश्रा
राजनांदगांव (छ.ग.)
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-18.12.2022-रविवार.