साहित्यिक निबंध-निबंध क्रमांक-114-उजाले अपनी यादों के-

Started by Atul Kaviraje, December 21, 2022, 09:18:05 PM

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Atul Kaviraje

                                    "साहित्यिक निबंध"
                                    निबंध क्रमांक-114
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मित्रो,

     आईए, आज पढते है " हिंदी निबंध " इस विषय अंतर्गत, मशहूर लेखको के कुछ बहू-चर्चित "साहित्यिक निबंध." इस निबंध का विषय है-"उजाले अपनी यादों के"
   
                               उजाले अपनी यादों के--
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     पिछले दिनों एक यात्रा के दौरान गुजरात के बड़ोदरा स्टेशन से गुज़रना पड़ा। ट्रेन वहाँ कुछ ज़्यादा ही देर तक रुकती है, इसलिए यों ही प्लेटफ़ार्म पर बुक-स्टॉल में सजी किताबों टटोलने लगा। अनायास ही पेपर बैक में छपी एक छोटी-सी पतली किताब हाथ आ गई, जिसके कवर पर गुजराती लिपि में लिखा था, "बशीर बद्र"। किताब को खोल कर देखा, कोई ६० ग़ज़ले गुजराती में छपी हुई थीं, जिन्हे निदा फाज़ली ने संकलित किया था। मैं गुजराती जानता हूँ, सो वह किताब खरीद ली और बम्बई तक की यात्रा में पूरी पढ़ गया। इस किताब ने मेरे सामने डॉ. बशीर बद्र के कुछ नए रूपों को उद्घाटित किया।

     डॉ. बशीर बद्र को यहाँ-वहाँ कुछ-कुछ सुना था, उनके कुछ मशहूर शेरों से मैं उसी तरह वकिफ़ था, जिस तरह ज्ञानी जैल सिंह, श्रीमती इंदिरा गांधी, जुल्फिकार अली भुट्टो से लेकर एक रिक्शेवाले, एक ड्राइवर और कुली, मज़दूर तक के तमाम लोगों की एक लम्बी रेंज वाकिफ़ और प्रभावित हैं। मुझे मालूम था कि...

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।
और
दुश्मनी जमकर कारो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों।

जैसे मशहूर शेर डॉ. बशीर बद्र ने कहे हैं और कुछ और मशहूर शेर उनकी उपलब्धियों में शामिल हैं, जैसे -
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो।

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता।

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।

     जैसे शेर जो ८-१० करोड़ लोगों की ज़िंदगी के साथ चलते हुए उनकी तकरीर और गुफ्तगू का हिस्सा बन गए हैं, भी डॉ. बशीर बद्र ने कहे हैं। मुझे सबसे ज़्यादा मज़ा तब आया जब एक सड़क-यात्रा में मेरे साथ चल रहे मेरे दोस्त ने मुझे बताया कि आगे जा रहे ट्रक के डाले पर लिखा हुआ शेर डॉ बशीर बद्र का हैं। शेर कुछ यूं था।

मुसाफिर है हम भी, मुसाफिर हो तुम भी,
किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी।

कुछ दिनों बाद मैंने एक और ट्रक के डाले पर लिखा हुआ देखा -

दुश्मनी का सफर, एक कदम-दो कदम,
तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जाएँगे।

     लुब्बोलुवाब यह कि आम हिन्दी पाठकों की तरह मैं भी डॉ बशीर बद्र को उर्दू का वो शायर मानता था जिसने कामयाबी की बुलंदियों को फतह कर एक लंबी रेंज के लोगों के दिलों की धड़कानों को अपनी शायरी में उतारा हैं। गुजराती में छपे इस छोटे से संग्रह ने ही मुझे बताया कि डॉ बशीर बद्र इन पन्द्रह-पच्चीस महान उद्धरणों से आगे भी जिन्दगी और कविता के मजबूत पायों का शायर हैं। इस किताब में मैंने जब उनका यह शेर पढ़ा -

धूप के उँचे-नीचे रस्तों को,
एक कमरे का बल्ब क्या जाने।

     तो पता लगा कि डॉक्टर साहेब के वो शेर जो मीर-ओ-गालिब के शेरों की तरह मशहूर हैं, अत: अच्छे हैं ही और गज़ल के सरमाये का एक अहम हिस्सा भी, लेकिन जो शेर कल की गज़ल का पैगंबर बनेंगे, उनसे मेरा साक्षात्कार नहीं हुआ था। मुझे यह भी लगा कि अव्वल तो डॉक्टर बशीर बद्र उर्दू लिपि में लिखने और छपने के बावजूद निखालिस उर्दू शायर नहीं हैं और दूसरे हिन्दी कविता के वर्तमान परिदृश्य में वे एक ऐसी आवश्यकता हैं, जिसके बिना यह परिदृश्य अधूरा नहीं तो कम-से-कम कुछ कम तो अवश्य लगेगा। लगा जैसे एक खास लिपि के अज्ञान की दीवारें हिन्दी के पाठकों और काव्य-रसिकों के लिए एक ऐसा कमरा बन गई हैं, जहाँ से ऊँचे-नीचे रस्तों की धूप, कमरे के बल्ब तक और कमरे के बल्ब की रोशनी, धूप के ऊँचे-नीचे रास्तों तक नहीं पहुंच पा रही हैं। फिर मैंने सोचा कि गुजराती में कुछ लोगों ने दीवारें तोड़ने का यह काम अगर कर लिया हैं, तो हिन्दी में भी कुछ लोगों ने किया ही होगा, और किताबों की कई दुकानों को खंगाल मारा कई शायरों के लिप्यंतरण पढ़े। वे मुझे अच्छे लिप्यंतरण लगे और उर्दू शायरी का खासा लुत्फ भी मिला , लेकिन डॉ बशीर बद्र की कोई किताब देवनागरी में नहीं मिल पाई और गज़ल को हिन्दी और उर्दू के खंडों से निकाल कर महसूस करना भी नहीं हो पाया।

("उजाले अपनी यादों के" की भूमिका से साभार)
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--विजय वाते
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                      (साभार एवं सौजन्य-अभिव्यक्ती-हिंदी.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-21.12.2022-बुधवार.