साहित्यिक निबंध-निबंध क्रमांक-115-उजाले अपनी यादों के

Started by Atul Kaviraje, December 22, 2022, 09:31:35 PM

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Atul Kaviraje

                                  "साहित्यिक निबंध"
                                  निबंध क्रमांक-115
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मित्रो,

     आईए, आज पढते है " हिंदी निबंध " इस विषय अंतर्गत, मशहूर लेखको के कुछ बहू-चर्चित "साहित्यिक निबंध." इस निबंध का विषय है-"उजाले अपनी यादों के"
   
                               उजाले अपनी यादों के--
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     इसी दौरान सापेक्ष गज़ल विशेषांक के संपादन में सहयोग का मौका मुझे मिला। मेरा तबादला भी भोपाल हो गया, जहाँ मुझे पता चला कि डॉ बशीर बद्र भी भोपाल में ही मेरे ऑफिस से करीब दो सौ गज की दूरी पर रह रहे हैं। मैंने सोचा कि क्यों न हिन्दी गज़ल पर उनका एका इंटरव्यू कर लिया जाए। डॉ साहब ने अपनी बीमारी के बावजूद बात करने के लिए सहमति दे दी और इंटरव्यू की शुरूआत में ही मैंने उन्हें यह कह कर छेड़ दिया कि वे उर्दू के एक बड़े शायर है : हिन्दी गज़ल पर अपनी टिप्पणी करें" मेरी बात पूरी होने से पहले ही प्रतिवाद के स्वर और कुछ रूखे अंदाज में उन्होंने कहा कि मैं उर्दू-हिन्दी भाषा का शायर नहीं हूं, मैं सिर्फ गज़ल की भाषा का शायर हूँ।

     इस तरह शुरूआत में ही उन्होंने मुझे बता दिया कि बातचीत सिर्फ गज़ल पर होगी, हिन्दी ग़ज़ल या उर्दू गज़ल पर नहीं। फिर तो बातों का एक लम्बा सिलसिला चल पड़ा और उस दौरान एक मजेदार मौका तब आया जब मैंने उन्हें उनके बहुत पढ़े जाने वाले मशहूर शेरों के बारे में छेड़ दिया। चिढ़ते तो डाक्टर साहब कभी नहीं थे, लेकिन एक हल्की-सी रुखाई जरूर स्वर में कौंधी और उन्होंने पूछा, "मैं अपने इन मशहूर शेरों की धौंस में क्यों आऊं?" फिलहाल इस इंटरव्यू के दौरान हिन्दी कविता और उर्दू शायरी पर लंबी बातचीत हुई। डॉक्टर साहब ने पूरी जिम्मेदारी के साथ यह दावा भी किया कि उन्हें देवनागरी पढ़ने का अच्छा अभ्यास नहीं होने के कारण वे हिन्दी कविता के अध्ययन और लुत्फ से महरूम रह गये हैं।

     इस बातचीत के दौरान उन्होंने अपनी कुछ ऐसी गज़ले सुनाई जो न तो देवनागरी में छपी हैं, न मुशायरों में सुनी गई हैं। एक गज़ल का शेर कुछ यूं था -

सड़कों, बाजारों, मकानों, दफ्तरों में रात दिन
लाल-पीली, सब्ज़, नीली, जलती-बुझती औरतें।

     हिन्दी की गज़ल की परम्परा में जो उर्दू से ही आई है, डॉ बशीर बद्र का स्थान मीर-सकी-मीर की विरासत है। यों तो आज गज़ल को हिन्दी और उर्दू के दायरे में देखना ही अनुचित है, क्योंकि सांस्कृतिक आदान-प्रदान के युग में मात्र लेखकीय प्रयोग के प्रति यह दृष्टिकोण संकीर्ण और अप्रासंगिक ही हैं। भाषाओं के संमिश्रण से जब भाषिक विकास होता है, तो यह संमिश्रण केवल शब्दों का ही नहीं, वरन उन भाषाओं के पीछे समूची सांस्कृतिक अवधारणाओं का होता है। इस प्रक्रिया में एक भाषा दूसरी भाषा के नज़दीक, केवल अपना स्थूल शब्दकोश ले कर नहीं आती, बल्कि एक पूरी दुनिया अपने साथ लेकर आती है। उर्दू का हिन्दी में प्रवेश कोई आकस्मिक घटना नहीं हैं, यह भारत में स्वातंत्र्योत्तर काल में विकसित हुई एक संस्कृति की कथा है। कठिनाई यह है कि हम जिस तरह खड़ी बोली की कविता-यात्रा में उर्दू अदब के किंचित प्रभाव को भी विचार में नहीं लेते, उसी तरह हिन्दी गज़ल की प्रकृति का फैसला करते वक्त पूरी गंभीरता से दुश्यंत कुमार के पीछे भी नहीं जाना चाहते।

     आज बोलचाल में उर्दू अंग्रेज़ी शब्द अपनी सत्ता पीछे छोड़ कर हिन्दी से एकात्म हो गए हैं। दरअसल इस प्रक्रिया के चलते ही कविता की भाषा और बोलचाल में भाषा के घेरे भी टूटते हैं। अपनी आंतरिक जरूरत के तहत रचना को बोलचाल के जिस शब्द की जरूरत होती है, वह उसे निस्संकोच अपना लेती है। अपनी कथित चरित्रगत स्वच्छता बनाए रखने और भाषा की भूल खो जाने के भय से वह अभिव्यंजना को अधूरा नहीं छोड़ती। यह हिन्दी के बड़े कवियों ने किया है और मीर तकी मीर और कुछ उर्दू शायरों ने भी जिनमें डॉ बशीर बद्र का नाम सबसे उपर लिया जाना जरूरी है। डॉ साहब ने इस सिलसिले में अंग्रेज़ी से भी कोई परहेज नहीं किया हैं। उन्होंने पहली बार उन अंग्रेज़ी शब्दों का गज़ल बनाया जो हमारी भाषा का हिस्सा हो गये थे। उनके पहले गज़ल में ये करतन सोचा भी नहीं जा सकता था। कुछ उदाहरण देखिए -

थके थके पेडल के बीच चले सूरज
घर की तरफ लौटी दफ्तर की शाम।

वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है,
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे।

     विषयांतर का थोड़ा खतरा उठाते हुए यहाँ हम यह भी देख सकते हैं कि सिर्फ भाषा के स्तर पर ही नहीं, अपितु गज़ल को युगीन चेतना से युक्त बौद्धिक प्रतीक धर्मिता से जोड़ कर भी डॉ बशीर बद्र ने एक बुनियादी काम किया हैं। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी और फ़ारसी की गैर गज़ला शब्द-राशि को पूरी सहजता के साथ अपने शेरों से समाहित कर उन्होंने नई गज़ल के लिए जहाँ एक विशाल शब्दकोश खुला छोड़ दिया है वहाँ गज़ल को पारंपरिक बिम्बों, मुहावरों और रूपकों की जड़ता से निकाल कर समकालीन चेतना के साथ साँस लेना भी सिखा दिया हैं।

("उजाले अपनी यादों के" की भूमिका से साभार)

--विजय वाते
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                      (साभार एवं सौजन्य-अभिव्यक्ती-हिंदी.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-22.12.2022-गुरुवार.