साहित्यिक निबंध-निबंध क्रमांक-116-उजाले अपनी यादों के

Started by Atul Kaviraje, December 23, 2022, 10:07:21 PM

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Atul Kaviraje

                                  "साहित्यिक निबंध"
                                 निबंध क्रमांक-116
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मित्रो,

     आईए, आज पढते है " हिंदी निबंध " इस विषय अंतर्गत, मशहूर लेखको के कुछ बहू-चर्चित "साहित्यिक निबंध." इस निबंध का विषय है-"उजाले अपनी यादों के"
   
                                उजाले अपनी यादों के--
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     बिना किसी शोर-शराबे और नारेबाज़ी के गज़ल महफ़िलों से बाहर आ कर शहरों, गाँवों, घर, परिवार, प्रेम, वियोग, कारख़ानों, बग़ीचों, और प्रकृति के साथ-साथ रेल, बसों और किताबों में आकर रम गई। यह गज़ल का पुनर्जीवन है। इसीलिए शायद यह अकारण नहीं है कि डॉ बशीर बद्र की ग़ज़लों में शमा परवाना जामोमीनासाकी का प्रयोग सिरे से गायब मिलता है। अभिव्यंजना में दुराग्रहों से कोसों दूर रहने वाले डॉ बशीर बद्र ने यहाँ दुराग्रह से काम लिया हैं। कभी जो संज्ञा वाचक शब्द किसी वस्तु विशेष का बोध कराते थे, वे आगे चल कर बहुत सहज बिंब हो जाते हैं और संज्ञाओं के पीछे के आदमी की हंसी-खुशी, आशाओं, आकांक्षाओं, चिंताओं, उद्वेगों, आवेगों का मूर्त बोध कराने लगते हैं। यादों के साथ उजाले, मृत्यु के साथ शाम और जीवन के साथ अनेकानेक गलियों का रूपक अब भाषा में एकाकार हो गया है, यहाँ संप्रेषण के किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं रह जाती हैं और यह रूपक जन-मन तक आसानी से पहुँचनेवाली कविता की पहचान बन जाते हैं यहीं काव्य की विकास यात्रा है। कवि की निजी नितांत वैयक्तिकता के क्षणों में उसके आस पास की चीजें, मेज़, कुर्सी, सूरज, रेल की परी, नारियल के दरख़्त, अटैची, कोट, आदि के पीछे जो आदमी है, वह उससे बातचीत करता हैं और यह बातचीत जब एक सार्थक अभिव्यंजना के रूप में फूट पड़ती है तो वह एक महान कविता होती हैं। आज भाषा में ये रूपक संज्ञा की परिधि के बाहर नहीं आ पाने से यदि आमफहम नहीं हो पाए हैं, तो भी इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले कल के काव्य रसिक इनके भीतर के इनसान को पहचान पाएँगे? पाठक पर ऐसा अविश्वास करना काव्य की विकास यात्रा पर अविश्वास करना है।

     जब डॉ बशीर कहते हैं - बारिशों में किसी पेड़ को देखना, शाल ओढ़े हुए भीगता कौन हैं। तो वे किसी पेड़ को एक ऊनी कपड़ा तो नहीं ओढ़ाते है। जब रात के घुप्प अंधेरे में दूर से आती हुई रेल को देख कर डॉ बशीर बद्र कहते हैं -

पीछे पीछे रात थी तारों का एक लश्कर लिये,
रेल की पटरी पे सूरज चल रहा था रात को।

     तो यह मंजर, सिर्फ रात के अंधेरे में चल रही रेल का मंजर तो नहीं होता, बल्कि एक चलती-फिरती जीवंत दुनिया होती है। और जब वे कहते हैं -

नारियल के दरख़्तों की पागल हवा, खुल गये बादवां लौट जा लौट जा,
सांवली सरजमी पर मैं अगले बरस फूल खिलने से पहले ही आ जाऊँगा।
या
सब्ज पत्ते धूप की ये आग जब पी जाएँगे
उजले फ़र के कोट पहने हल्के जाड़े आएँगे।

और जब वे यह कहते हैं -
मुझको शाम बता देती है,
तुम कैसे कपड़े पहने हो।

सारे दिन की थकी साहिली रेत पर
दो तड़पती हुई मछलियाँ सो गई।

झिलमिलाते हैं कश्तियों में दिये,
पुल खड़े सो रहे हैं पानी में।

और उससे भी आगे जा कर जब कहते हैं -
कच्चे फल कोट की जेब में ठूँस कर जैसे ही मैं किताबों की जानिब बढ़ा,
गैलरी में छुपी दोपहर ने मुझे नारियल की तरह तोड़ कर पी लिया

तो डॉ बशीर बद्र का वह रूप सामने आता है, जिसके बारे में उन्होंने खुद ही एक जगह कहा है -

कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बंधा हुआ,
ये गज़ल का लहजा नया-नया न कहा न सुना हुआ।

     गज़ल के इन शेरों का आज लोकप्रिय न होना गुणवत्ता की कोई कसौटी नहीं है, और इस बात की भी गारंटी नहीं है कि कल या आज भी नारियल के दरख़्तों की पागल हवा के पीछे काव्य-रसिक भारत के दूर दक्षिण में समंदर के किनारे की किसी अल्हड़ युवती को न देख पाये। ऐसा सोचना कविता की विकास यात्रा में अनास्था जाहिर करना है।

     गज़ल के साथ जो बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ जुड़ी है उनमें जो एक रूपकों और बिंबों के पुनरावर्तन से निकली संप्रेषणीय सहजता की विशिष्टता भी हैं। बल्कि आमतौर पर यह गज़ल की अनिवार्यता ही मानी जाती है। इसी ग़लतफ़हमी के चलते जहाँ एक ओर हिंदी कविता के मर्मज्ञ गज़ल को ही कविता से खारिज कर देते हैं वहीं दूसरी ओर डॉ बशीर बद्र की उन ग़ज़लों पर पर्याप्त आलोचना उर्दू हिन्दी में भी नहीं की गई जिसमें एकदम नये बिंब व रूपक हैं, जिसमें नई दुनिया से लाई हुई कल्पना है, जो एक तरह से गज़ल की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भी पारंपरिकता से दूर हैं। यहाँ बशीर बद्र के जो शेर दुनिया भर में सब से मशहूर शेर हैं, उनकी काव्यगत गुणवत्ता पर कोई टिप्पणी किये बगैर मैं यह कहना चाहूँगा कि उनका असली कारनामा आज की वैश्विक जिन्दगी से नये इंसान की तलाश किया जाता है, जिस पर अभी काफी कुछ लिखा जाना था।

("उजाले अपनी यादों के" की भूमिका से साभार)
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--विजय वाते
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                     (साभार एवं सौजन्य-अभिव्यक्ती-हिंदी.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-23.12.2022-शुक्रवार.