साहित्यिक निबंध-निबंध क्रमांक-117-उजाले अपनी यादों के

Started by Atul Kaviraje, December 24, 2022, 09:10:10 PM

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Atul Kaviraje

                                 "साहित्यिक निबंध"
                                निबंध क्रमांक-117
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मित्रो,

     आईए, आज पढते है " हिंदी निबंध " इस विषय अंतर्गत, मशहूर लेखको के कुछ बहू-चर्चित "साहित्यिक निबंध." इस निबंध का विषय है-"उजाले अपनी यादों के"
   
                                उजाले अपनी यादों के--
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     डॉ बशीर बद्र ने शब्दों से अपनी बात बुलवाने का काम किया है और इस दौरान उन्होंने शब्द में अपनी जमीन और मिट्टी के संस्कार बो दिए हैं। यही कारण है कि उनके 'शब्द' उनकी ग़ज़लों के हिंदी या उर्दू होने पर कोई फैसला नहीं दे सकते हैं। अगर उनकी गजलियत पर उर्दू आलोचना में सवाल उठाए भी गये हैं, तो शायद इसलिए कि वे एक रची-रचाई बंधी-बंधाई बिंब योजना, रूपकों और मुहावरों से बाहर चले गए हैं। लेकिन इस तरह बाहर जाना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि रचना की आत्मतुष्ट वैयक्तिकता और रूमानी भाववाद के जिस दौर में सामाजिक चिन्ता और मानवीय सरोकारों में बँधे कवि एक गहरा अंधेरा महसूस कर रहे थे, जहाँ एक ओर किशोर भावुकता की भीड़ लगी थी और दूसरी ओर कलावाद के नये-नये जुमले पाठक को छल रहे थे, कुछ हिन्दी कवियों की तरह डॉ बशीर बद्र ने भी अपनी गज़ल के शेरों में उस देशकाल की मिट्टी के संस्कार बो दिए जिन्होंने अगली पीढ़ी को प्रभावित किया। उनकी काव्य-भाषा, मुहावरे और अभिव्यक्ति के सीधे नुकीलेपन ने इस कविता को आकर्षक बनाया। यहाँ कविता साधारण आदमी के साथ जीवन से तर्क या प्रश्न नहीं करती, उसे असहाय खीझकर छोड़ नहीं देती, उसे उपदेश और सलाह नहीं देती, देती है तो सिर्फ एक दिलासा। उनकी कविताएँ या शेर किसी दिशा विशेष की ओर से ले जाने की वजह से नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों के सार्थक आश्वासन और आत्मविश्वास को संवेदनात्मक बल पहुँचाने की वजह से श्रेष्ठ है इसीलिए लिप्यंतरण का यह उपक्रम हैं।

डॉ बशीर बद्र की कविता का अत्यंत प्रीतिकर पक्ष उनकी सादगी है। कितने भोलेपन से वे कह जाते हैं-

हम से मुसाफिरों का सफर इंतज़ार है
सब खिड़कियों के सामने लंबी कतार हैं।

और ऐसे ही कहते हैं -

हम क्या जाने दीवारों से, कैसी धूप उतरती होगी
रात रहे बाहर जाना है, रात गए घर आना बाबा।

     तो लगता है कि यह भोलापन सिर्फ अभिव्यंजना का भोलापन नहीं है। यह इसलिए आकर्षित करता है कि जहाँ कविता एक छोर पर सहजता की आड़ में, सपाटबयानी और वक्तव्य का पर्याय हो गई है, वहीं दूसरे छोर पर वह गहरी और मार्मिक होने की प्रक्रिया में जटिल और दूभर हो गई। जन की पक्षधरता के बावजूद कवि जन तक पहुँचने वाली कविता अक्सर नहीं दे सके। नई कविता की भाषा का आदर्श भले ही बोलचाल की भाषा रहा हो, लेकिन कई जगह अनुभूतियों के एकांत अपरिचित प्रतीक संयोजन और शैली की वक्रता ने उसे जटिल बना दिया है। कुल मिलाकर अगर भाषा सहज हुई तो भी वह सहजता दिखावटी ही रही। डॉ बशीर बद्र ने माना है कि अभिव्यक्ति प्रक्रिया का मुख्य काम अनुभव और विचार को अधिक सार्थक, सघन और प्रभावी बनाना है। युद्ध का हथियार बनानेवाले कारीगर में योद्धा का सा आक्रोश नहीं होता, लेकिन अस्त्र की मारक क्षमता और युद्ध में उसके होनेवाले प्रभाव पर निगाह जरूर होती है। विषमताओं पर तीखे प्रहार भी कितनी बाल सुलभ मासूमियत से किए जा सकते है यह इस शेर से स्पष्ट हो जायेगा-

किसने जलाई बस्तियाँ बाज़ार क्यों लुटे
मैं चांद पर गया था मुझको पता नहीं।

     सहजता में कविता एक चिंतन को कैसे रूप दे सकती है ये डॉ साहब की कविता में देखा जा सकता है और यह भी कि संप्रेषण के स्तर पर सरलता से उपलब्ध कविता अनुभूति और रचना-प्रक्रिया के स्तर पर सहज होते हुए भी अपने पीछे से कवि के आत्म-संघर्ष, भीतरी खोजें, बेचैनी, उसके अध्ययन और चिंतन के सरोकारों से लबालब होती है। इसीलिए दंगों की त्रासदी पर वह आसानी से कह सकता है :-

मकां से क्या मुझे लेना मकां तुमको मुबारक हो
मगर ये घासवाला रेशमी कालीन मेरा है।

     ये गज़ल कविता को आश्वस्त करती है कि अभिव्यंजना के लिए माध्यम की न तो कोई मर्यादा होती है, न ही उसकी कोई भाषा। अगर ऐसी कोई मर्यादा है तो मानवी सरोकारों की, और कोई भाषा है तो हमारे आस-पास सांस ले रही जिन्दगी की। डॉ बशीर बद्र इसी भाषा के कवि है और इसलिए जब वे कहते हैं कि वे उर्दू लिपि में जानेवाली गज़ल की भाषा के शायर हैं, तो यह लिप्यंतर जरूरी हो जाता है।

("उजाले अपनी यादों के" की भूमिका से साभार)
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--विजय वाते
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                      (साभार एवं सौजन्य-अभिव्यक्ती-हिंदी.ऑर्ग)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-24.12.2022-शनिवार.