सुनीता यादव-अपनी-सी लगे मॉरीशस की धरती-1

Started by Atul Kaviraje, December 24, 2022, 10:11:55 PM

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Atul Kaviraje

                                   "सुनीता यादव"
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मित्रो,

     आज पढते है,सुनीता प्रेम यादव, इनके "सुनीता यादव" इस कविता ब्लॉग का एक लेख  . इस कविता का शीर्षक है- "अपनी-सी लगे मॉरीशस की धरती"

मॉरीशस: बड़े अच्छे लगते हैं ये धरती, ये नदिया, ये रैना और यहाँ के लोग ..

                          "अपनी-सी लगे मॉरीशस की धरती"-1-
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     ॐ दीनानाथ-जगदीश-रमेश-राम-राजेश-रमाकांत-मिथिलेश-सचीन्द्र-शिव की शुभेन्दु से झरती विमल-पूनम-प्रभा पाने की लालसा से सिक्त मैं .....
रवीन्द्र की माला से झरते अरुणालोक के अभिलेश-आभा में खिलते राजीव की सुषमा से संपृक्त मैं.....
मॉरीशस के सागर तट पर आद्या,मीनाक्षी की प्रतिमा की कुसुमार्चना करती सत्य के संगीत में ओंकार भरती मैं.....
आत्मानुभूति से भरे मन में उठनेवाले भाव-तरंगों को शब्दों की मेंड़ में जकड़ने का असमर्थ प्रयास करती मैं....
कैसे शब्द... कैसी भाषा ? कल्पना से परे परिकल्पना की भाषा ..

     एक आदिम प्यास लिए चल पड़ती हूँ जो कभी नहीं बुझती । निरंतर मेरे आस-पास सरसराती है,मैं जब भी उसके आर-पार गोता लगाती हूँ, उसकी खामोशी को ढूंढती हूँ तो शीतल समीर बह जाता है यह कहकर कि सुन! ले ले मजा ... दे दे अन्तर्मन को सुखद अनुभूति । मैं हूँ न ( फिर से एक कंकरी स्मृति –सागर में जाकर गिर ही जाती है और लहरों का रूप लेकर झिलमिलाती यादों की  लड़ी बनकर आ जाती है...

     उस दिन यानि प्रभात जी का फोन था  हर बार सम्मान को ठुकराती क्यूँ हो ? इस बार भी चलोगी नहीं? रक्त संबंध होना अपनों की शर्त नहीं होती इसलिए सौ मजबूरियों स्वाहा करती मैं तैयार हो गई।समझ गई । जब भी स्वस्तिमय प्रकाश को कण-कण में ढूँढने की आज्ञा हो असीम बहने लगता है।

     मन उड़ने लगा उस हवाई जहाज के संग जब पहली सितंबर को मैं पुने से दिल्ली की  उड़ान भरने लगी थी। 2 सितंबर 2019 की सूबह दिल्ली से मॉरीशस की उड़ान भरते समय जब  कप्तान ने 30 हजार  मीटर की ऊंचाई से घोषणा की कि थोड़ी देर में हम सर शिवसागर रामगुलाम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरनेवाले हैं । रग-रग में जैसे  नव उमंग से अतिरिक्त खून दौड़ने लगा था। धरती धरा पर दीख पड़ी थी !!!

                 मॉरीशस की धरती--

     धरती नापने चली हो? खो जाओगी पगली! सचमुच; महकती हवा की थपकियों से आत्मा की गहराइयों को छूती कुदरत ने बता ही दिया आखिर नापना आसान नहीं है। हिन्द महासागर के मध्य 45 किलोमीटर चौड़े और 65 किलोमेटर लंबे इस छोटे-से द्वीप की भाषा को कैसे पढ़ती ? भाषा मानो कृष्ण के बासुरी का स्वर और मीरा की आँखों से टपकते आँसू ! भाषा मानो पत्थरों से निकलते आकार,भुक्त-भोगी से निकलते विचार ! क्या कोई रिश्ता है उनकी भाषा में और मेरी भाषा में?

     नजर से ओझल होती अप्रवासी घाट को निहारती मैं सोये हुए इतिहास को जगाने चली। पता चला 2 नवंबर,1834 में भारतीय गिरमिटिया मजदूरों का पहला बेड़ा उतरा था जब असंख्य मजदूरों को शर्तबद्ध कुलियों के रूप में चंद फ्रांसीसी और अंग्रेज़ उपनिवेशवादी मालिकों ने यहाँ धोखा-धाड़ी से कलकत्ता से लाए थे।जानवरों की तरह काम में झोंक दिया गया था। उन दलालों की भाषा कैसी होगी जिन्होने सोने का प्रलोभन इन कुलीन किसानों को दिया होगा ? द्वीप पर उतार कर कोठरी में डाल दिया होगा ? दंड विधान की भाषा कैसी होगी?  गुलामी की कड़ियों में पोर-पोर जकड़े होने के बावजूद इन्होने अपनी आत्मा को मरने नहीं दिया ! अपनी अस्मिता की तलाश में अपनी भाषा-संस्कृति-परंपरा को जिस तरह जिंदा रखा, सामूहिक मंचों में बच्चों के भविष्य की चिंता व्यक्त करते हुए हिन्दी,तमिल,तेलुगू,मराठी और उर्दू  भाषा की पढ़ाई पाठशाला के माध्यम से जारी रखा यह सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी जाति के लिए गर्व की बात है ।

     जिनके नस-नस में भोजपुरी बहती थी, हर बंदिश के बाद हिन्दी की अलख जगाए रखा। उनके प्रचुर साहस,प्रखर इच्छाशक्ति,धैर्य व अथक परिश्रम ने चट्टानों-झड़ियों, वाले द्वीप को सबसे सुंदर द्वीप आज का 'मॉरीशस' बना दिया।  कल कहीं न कहीं उनका दर्द मेरा दर्द था ... आज उनकी भाषा मेरी भाषा है।अफसोस ...उनकी पीड़ा आज भी है कि फ्रेंच और अङ्ग्रेज़ी लिखने वालों को जो मान्यता फ़्रांस और इंग्लैंड मे मिलती रही हिन्दी लेखकों को भारत में नहीं। लेकिन 'परिकल्पना' का योगदान जरूर रहेगा इसमें कोई संदेह नहीं I

                 आज का मॉरीशस –

     नयन तृप्त! कहीं हरियाली से लिपटे सुंदर पर्वत, चीड़ के घने जंगल, जल प्रपात तो कहीं नीले-हरे,कई रंग झलकता समुद्र! कहीं झरनों,झीलों की सौम्यता और उनकी पारदर्शिता मानो नीले पानी की चादर हो तो कहीं पहाड़ों से घिरा, धानी,अबीर,अंगूरी द्वीप को किसी चक्र की तरह घिरी लहरें और उछलती प्रवाल रेखाएँ!!!y! कहीं सफ़ेद नर्म रेत बिछ गई है तो कहीं होली खेलती लाल, पीली, हरी, नीली, काली, भूरी, सफ़ेद मिट्टी फैली है । कहीं मीलों फैले गन्ने के खेत हैं तो आम की खेती उसकी सहचरी है। मन में  कहीं धुंध से ढके पहाड़ों को ज्वालामुखी के शून्य वृत्ताकार क्रेटर पर खड़े होकर छूने की इच्छा तो कहीं फेन उगलता उत्तरी तट के समुद्र को मनाने की पूरी कोशिश करती मैं ; दूर तक पसरी हुई पक्की सड़कें, सड़कों के किनारे फ्लेम व बोगोनवेलिया के पौधे, तट पर नारियल,सुपारी,इमली के पेड़ व कलात्मक कॉटेज को देखते ही पसर गई  ...हा  इतना सौंदर्य !!!

--सुनीता प्रेम यादव
औरंगाबाद,महाराष्ट्र   
(Friday, March 11, 2022)
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              (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-सुनीता यादव.ब्लॉगस्पॉट.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-24.12.2022-शनिवार.