साहित्यशिल्पी-इतिहास और जातीयता के विषय में-

Started by Atul Kaviraje, December 27, 2022, 09:19:21 PM

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Atul Kaviraje

                                      "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं" 

इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं [आलेख]- अश्विनी कुमार लाल-
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     'इतिहास, जातीयता और साहित्य के रूप' शीर्षक अध्याय में डॉ.शर्मा ने कुछ विशेष समस्याओं पर विचार किया है। जिसमें उन्होंने मुख्य रूप से तीन समस्याओं पर विचार किया है जो इस प्रकार है – हिंदी साहित्येतिहास में काल-विभाजन की समस्या, साहित्य के जातीय रूप और उसकी जातीय विशेषताओं की समस्या और नाटक, उपन्यास, निबंध आदि साहित्य के रूपों की समस्या। डॉ.रामविलास शर्मा लिखते हैं- "इन सभी पर शुक्ल जी की कुछ विशेष मान्यताएं हैं और उनके खंडन की भी विशेष कोशिश की गई हैं, कुछ की ओर ध्यान कम गया है या ज्यादातर आलोचक उनकी ओर उदासीन रहे हैं।"1 आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक 'हिंदी साहित्य का इतिहास' सन् 1929 ई. में प्रकाशित हुई जो 'नागरी प्रचारिणी सभा' काशी द्वारा छपी थी। आचार्य शुक्ल से पूर्व जिन विद्वानों ने साहित्येतिहास लेखन में अपनी भूमिका अदा की, उससे उन्होंने लाभ उठाया। आचार्य शुक्ल ने स्वयं स्वीकार भी किया है कि "कवियों के परिचयात्मक विवरण मैंने प्राय: 'मिश्रबंधु विनोद' से ही लिए हैं।" इससे स्पष्ट है कि आचार्य शुक्ल ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों से बहुत कुछ ग्रहण करके अपने साहित्येतिहास को एक व्यवस्थित आधार प्रदान किया, जिसका पूर्ववर्ती साहित्येतिहासकारों के यहां अभाव दिखाई पड़ता है।

     आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य का काल-विभाजन दो आधारों पर किया है। पहला कालक्रम के आधार पर और दूसरा साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर। कालक्रम के आधार पर उन्होंने आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल, आधुनिक काल में हिंदी साहित्ये‍तिहास को बांटा है तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर हिंदी सा‍हित्येतिहास का काल विभाजन उन्होंने इस प्रकार किया है– वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल और गद्यकाल। आचार्य शुक्ल ने साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर किए गए काल-विभाजन को महत्वपूर्ण माना है। आचार्य शुक्ल लिखते हैं- "किसी काल के भीतर जिस एक ही ढंग के बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ चले आते हैं, उस ढंग की रचना उस काल के लक्षण के अंतर्गत मानी जाएगी, चाहे और दूसरे ढंग की अप्रसिद्ध और साधारण कोटि की बहुत-सी पुस्तकें भी इधर-उधर कोनों में पड़ी मिल जाया करें। प्रसिद्धि भी किसी काल की लोकप्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है।" इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने काल-विभाजन को जो आधार प्रदान किया उसी आधार को बाद के विद्वानों ने स्वीकार किया है। शुक्ल के बाद भी बहुत से साहित्येतिहास ग्रंथ लिखे गये हैं पर उसमें कुछ नया नहीं है।

--अश्विनी कुमार लाल
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-27.12.2022-मंगळवार.