साहित्यशिल्पी-इतिहास और जातीयता के विषय में-

Started by Atul Kaviraje, December 28, 2022, 09:28:21 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं" 

इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं [आलेख]- अश्विनी कुमार लाल-
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     पर जिन लोगों ने कुछ नया जोड़ने की कोशिश की, उन लोगों ने भी शुक्ल के मूल आधार को नहीं छोड़ा। इस संदर्भ में डॉ. शर्मा का कथन बहुत सार्थक जान पड़ता है- "शुक्ल जी के बाद संक्षिप्त और सुबोध इतिहासों की बाढ़ आ गई। कुछ वृहत्काय इतिहास भी लिखे गए। इसमें ज्यादातर चोरी का माल है, शुक्ल जी की निधि से माल लेकर टके सीधे करने का व्यापार है, बहुत कम लोगों ने नये सिरे से अध्ययन करके हिंदी साहित्य के इतिहास में कुछ नया जोड़ने की कोशिश की है। विद्यार्थियों के लिए लिखना बुरा नहीं है, लेकिन जहां इसे लिखने का उद्देश्य ज्ञान-वृद्धि न होकर परीक्षा पास कराना भर होता है, वहां इतिहास-लेखन पैसा-कमाऊ व्यापार मात्र हो जाता है।" इस प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्येतिहास ग्रंथ परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ।

     आचार्य शुक्ल के बाद अगला महत्वपूर्ण साहित्येतिहास ग्रंथ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का है। यद्यपि आचार्य द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के ढांचे एवं व्यवस्था को स्वीकार किया है। लेकिन द्विवेदी जी ने आदिकाल की तरह आधुनिक काल नाम तो रखा लेकिन मध्यकाल नाम छोड़ दिया। इस संदर्भ में डॉ.रामविलास शर्मा लिखते हैं- "आदिकाल से लेकर छायावाद तक द्विवेदी जी ने उन्हीं धाराओं के हिसाब से इतिहास लिखा है जिनका विवेचन शुक्ल जी ने किया था। एक अंतर है। द्विवेदी जी ने आदिकाल की तरह आधुनिक काल नाम तो रखा है लेकिन मध्यकाल नाम छोड़ दिया है। आदि है और आधुनिक है तो मध्य भी होना चाहिए, उसे छोड़ने का कोई संगत कारण नहीं दिखाई देता। इसके सिवा और युगों में जहां द्विवेदी जी ने उन्हीं साहित्यिक धाराओं और प्रवृत्तियों को मुख्य माना है जिनकी चर्चा शुक्ल जी ने की थी, वहां आदिकाल की मुख्यधारा उन्होंने स्पष्ट नहीं की। जैसे मध्यकाल में यह नाम न लेते हुए भी उन्होंने भक्ति और रीतिकाव्यों की चर्चा की है, वैसे आदिकाल के अंतर्गत ऐसा कोई शीर्षक नहीं दिया।"5 शर्मा जी के अनुसार वीरगाथा काल के अध्ययन में शुक्ल जी ने जो तथ्य दिए हैं, उनका विश्लेषण लगभग सही परिप्रेक्ष्य में किया है, यही कारण है कि उनका खंडन करने वाली आलोचना भी उन्हीं की स्थापनाओं को दुहराती है या थोड़ा बहुत परिवर्तन के साथ उपस्थित करती है। इस संदर्भ में डॉ.शर्मा ने एक से ज्यादा उदाहरणों का उल्लेख किया जिसमें द्विवेदी जी शुक्ल की अवधारणाओं को दुहराते हुए नजर आते हैं। उदाहरण स्वरूप खुमान रासो के बारे में शुक्ल जी ने लिखा है- "इस समय खुमान रासो की जो प्रति प्राप्ते है वह अपूर्ण है।" आचार्य द्विवेदी जी इसी से मिलता जुलता वाक्य लिखते हैं- "आजकल खुमान रासो की जो प्रति मिलती है वह अपूर्ण है।" अत: इस तरह से अनेकानेक उदाहरण मिल जाएंगे। इस संदर्भ में डॉ.शर्मा का कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि "द्विवेदी जी ने शुक्ल जी की स्थापनाओं को नहीं दोहराया, कभी-कभी उनके वाक्यों को भी दोहराया है।" इस प्रकार स्पोष्ट रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भले ही द्विवेदी जी को 'वीरगाथाकाल' की तुलना में 'आदिकाल' नाम सार्थक जान पड़ता है लेकिन आदिकाल की मुख्य धारा वीरगाथा काव्य की है। इस संदर्भ में डॉ.शर्मा लिखते हैं- "वीरगाथा काव्य हिंदी की एक विशेष धारा है, इस धारणा के प्रति‍निधि ग्रंथ अधिकतर अप्रमाणिक है, लेकिन उनसे एक वीरगाथा काव्य की परंपरा का अस्तित्व सिद्ध होता है।"

--अश्विनी कुमार लाल
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-28.12.2022-बुधवार.