साहित्यशिल्पी-इतिहास और जातीयता के विषय में-ब-

Started by Atul Kaviraje, December 29, 2022, 09:26:06 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं" 

इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं [आलेख]- अश्विनी कुमार लाल-ब--
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     डॉ. शर्मा ने एक बहुत गंभीर समस्याओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है। जहां वे सभी भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी भाषा और साम्राज्यवादी संस्कृति के दबाब को देखते हैं। अंधविश्वासों को कायम रखने, अंग्रेजी के प्रभाव को जमाकर नवजवानों को देश से विमुख करने में सबसे ज्यादा प्रयत्नशील यहां के अंग्रेज शासक थे। यही कारण है कि आचार्य शुक्ल ने सबसे ज्यादा उन्हीं पर वार किया। अंग्रेजों ने यह प्रचार किया था कि अंग्रेजी भाषा पढ़कर ही उच्च नौकरियां पायी जा सकती हैं और वे यहां की भाषाओं को नीचा दर्जा देते थे। इस परिस्थिति की चर्चा करते हुए शुक्ल जी ने अपने इतिहास में लिखा है- "देशी भाषा पढ़कर भी कोई शिक्षित हो सकता है, यह विचार काफी समय तक लोगों का न था।" इससे स्पष्ट है कि अंग्रेज ने हमारी भाषा से देश के नवजवानों को दूर करते जा रहे थे। यह स्थिति भारतेन्दु् काल में बनी हुई थी, द्विवेदी युग में थोड़ी कम हुई। लेकिन आचार्य शुक्ल निरंतर 'निज भाषा' को महत्वपूर्ण मानते थे। डॉ.शर्मा लिखते हैं- "शुक्ल जी उन देशभक्त लेखकों में थे, जो यह सिद्ध करना चाहते थे कि देश-भाषा में शिक्षा जरूरी है और इसके बिना और सब शिक्षा अधूरी है।" आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट रूप से कहा कि अंग्रेजी या संस्कृत या अरबी-फारसी जानने से कोई हिंदी का जानकार नहीं हो जाता। हिंदी की अपनी विशेषताएं हैं, जिसे सीखे-समझे बिना कोई हिंदी का लेखक नहीं बन सकता। डॉ.शर्मा ने शुक्ल के संदर्भ में लिखा है- "उन्होंने ऐसे लोगों को फटकारा है जो हिंदी लेखक होने की अपेक्षा अंग्रेजी, संस्कृत या अरबी-फारसी का विद्वान कहने-कहलवाने में ज्यादा गौरव समझते थे।" हिंदी प्रदेश में जातीय चेतना का कितना अभाव है यह हम आचार्य शुक्ल के कथन में देख सकते हैं जो उन्होंने द्विवेदी युग के संदर्भ में लिखा है- "इस काल खण्ड के बीच हिंदी लेखकों की तारीफ में प्राय: यही कहा सुना जाता रहा कि ये संस्कृ‍त बहुत अच्छी जानते हैं, वे अरबी-फारसी के पूरे विद्वान हैं, ये अंग्रेजी के अच्छे पंडित हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी कि ये हिंदी बहुत ज्यादा जानते हैं। यह मालूम ही नहीं होता था कि हिंदी भी कोई जानने की चीज है। परिणाम यह हुआ कि बहुत-से हिंदी के प्रौढ़ और अच्छे लेखक भी अपने लेखों में फारसीदानी, अंग्रेजीदानी, संस्कृतदानी आदि का कुछ प्रमाण देना जरूरी समझने लगे।" अत: हिंदी के प्रति जिस तरह का रवैया हिंदी प्रदेश में दिखाई पड़ रहा था, उससे साफ स्पष्ट था कि वहां जातीय चेतना का अभाव था। क्योंकि उनमें हिंदी भाषा के प्रति कोई खास लगाव नहीं था। अत: जैसे-जैसे अपनी भाषा के प्रति लगाव, अपनी संस्कृति के प्रति लगाव उत्पन्न होगा वैसे-वैसे हमारी जातीय चेतना सुदृढ़ होगी।

--अश्विनी कुमार लाल
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-29.12.2022-गुरुवार.