साहित्यशिल्पी-इतिहास और जातीयता के विषय में-

Started by Atul Kaviraje, December 30, 2022, 09:26:39 PM

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Atul Kaviraje

                                    "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं" 

इतिहास और जातीयता के विषय में आचार्य शुक्ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्यताएं [आलेख]- अश्विनी कुमार लाल-
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     शुक्ल जी के काव्य विषयक धारणा पर डॉ. शर्मा अरस्तू के प्रभाव को देखते हैं, जिसके अनुसार काव्य मानव कर्मों की छवि है। साहित्य के लोकपक्ष पर शुक्ल जी यदि बल देते हैं तो वह उनकी पूंजीवादी विचारधारा में निहित व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों की समझ का परिणाम है। आचार्य शुक्ल ने नाटकों पर विस्तार से चर्चा किया है। उन्होंने हिंदी गद्य साहित्य के‍ विकास में नाटकों की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया। आचार्य शुक्ल ने नाटक के उद्देश्य, नाटक और काव्य में अंतर को भी बहुत सुंदर ढंग से स्प्ष्ट किया है। भारतीय साहित्यशास्त्र का हवाला देकर नाटक का लक्ष्य बतलाते हुए शुक्ल जी ने लिखा है- "उसका लक्ष्य भी निर्दिष्ट शील स्वभाव के पात्रों को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में डालकर उनके वचनों और चेष्टाओं द्वारा दर्शकों में रस संचार करना ही रहा है।" आगे डॉ.रामविलास शर्मा नाटक और काव्य दोनों के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- "नाटक और काव्य दोनों ही का उद्देश्य रस-संचार कराना है। पात्रों का भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पड़ना नाटक और प्रबंध दोनों ही की विशेषता है। लेकिन पात्रों के वचनों और चेष्टाओं द्वारा दर्शकों में रस संचार करना नाटकों की अपनी विशेषता है।" आचार्य शुक्ल जी की मान्यताओं के अंतर्विरोध की ओर संकेत करते हुए डॉ.रामविलास शर्मा ने लक्ष्य किया है कि एक ओर शुक्ल जी यथार्थवाद के पक्ष में हैं, दूसरी ओर यथार्थवाद के नाम पर नाटकों से काव्यत्व‍ लोप के विरोधी हैं। इस प्रकार डॉ.रामविलास शर्मा ने शुक्ल जी के परिप्रेक्ष्य‍ में नाटक संबंधी विचारों का सटीक ढंग से मूल्यांकन किया। आचार्य शुक्लट उपन्यास को एक बहुत बड़ी शक्ति मानते हैं। उन्होंने उपन्यास की विशेषता को परख लिया था, जो उसे साहित्य की अन्य विधाओं से अलग करती है। उपन्यास के संदर्भ में आचार्य शुक्ल लिखते हैं- "वर्तमान जगत में उपन्यासों की बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है, उसके भिन्न-भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियां उत्पन्न हो रही हैं, उपन्यास उनका विस्तृत प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करते, आवश्यकतानुसार उनके ठीक विन्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न करते हैं।" आचार्य शुक्ल उपन्यास को समाज सुधार का विशेष अस्त्र समझते हैं। यही कारण है कि वे प्रेमचंद के यथार्थ चित्रण की तारीफ करते हैं क्यों कि प्रेमचंद के उपन्यासों का कथानक सर्वसामान्य जीवन पर केंद्रित है। आचार्य शुक्ल ऐतिहासिक उपन्यास लेखन को एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी मानते हैं। वे ऐतिहासिक उपन्यासों को रोमांटिक कल्पना का खेल नहीं मानते हैं। ऐतिहासिक उपन्यासकारों में शुक्ल जी ने वृन्दावनलाल वर्मा की बड़ी प्रशंसा की है। आचार्य शुक्ल उपन्यासों की तरह निबंधों को भी साहित्य का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। शुक्ल जी लिखते हैं- "यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है, तो निबंध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है।" आचार्य शुक्ल निबंधों पर व्यक्तिगत विशेषताओं की छाप को स्वीकार करते हैं, पर इस शर्त पर नहीं कि उसमें विचारों की श्रृंखला और लोक से जुड़ाव न हो।

     आचार्य शुक्ल ने परम्परा से चली आ रही आलोचना पद्धति का तीव्र खण्डन किया। संस्कृत साहित्यालोचन की सीमाएं बतलाते हुए उन्होंने कहा कि इसका उद्देश्य लक्षण ग्रंथों के अनुसार गुण-दोष विवेचन होता था। यह गुण-दोष वाली आलोचना पद्धति हिंदी में मिश्रबंधुओं और पंडित पद्मसिंह शर्मा आदि तक चलता रहा। आचार्य शुक्ल ने इस रूढि़वादी आलोचना पद्धति का तीव्र विरोध किया। मिश्रबंधुओं के 'हिंदी नवरत्न' में देव बिहारी विवाद नयी आलोचना के विकास के लिए कितना निरर्थक था, यह शुक्ल जी ने विस्तार से दिखाया है। डॉ.शर्मा ने हिंदी आलोचना मौलिक कर्तव्य को शुक्ल जी के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार स्पष्ट किया है- "हिंदी आलोचना का मौलिक कर्तव्य यह था और शुक्ल जी ने उसे पूरा किया, रीतिशास्त्र के बदले यथार्थवाद के अनुरूप नये साहित्य सिद्धांतों की प्रतिष्ठा, रूढि़वादी साहित्य का विरोध और नये राष्ट्रीय और जनवादी साहित्य का समर्थन। इस कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए ही शुक्ल जी ने दूसरे आलोचकों की नुक्ताचीनी की थी।" इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने परंपरागत आलोचना पद्धति को ध्वस्त कर प्रगतिशील मूल्यों से ओतप्रोत आलोचना को प्रश्रय दिया।

--अश्विनी कुमार लाल
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-30.12.2022-शुक्रवार.