निबंध-क्रमांक-131-बैलगाड़ी की सवारी पर निबंध

Started by Atul Kaviraje, January 07, 2023, 09:46:33 PM

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Atul Kaviraje

                                        "निबंध"
                                      क्रमांक-131
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मित्रो,

      आईए, पढते है, ज्ञानवर्धक एवं ज्ञानपूरक निबंध. आज के निबंध का शीर्षक है- " बैलगाड़ी की सवारी पर निबंध"

      बैलगाड़ी की सवारी पर निबंध-Essay on Bullock Cart Ride--
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     बैलगाड़ी के चक्के धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे हैं, उत्सुकता के सागर में हल्का-हल्का ज्वार उठा रहे हैं। आखिर आपकी मंजिले-मकसूद आ जाती है। गाड़ी की आहट सनते ही माँ दरवाजे तक चली आई हैं। उनके ममत्व की एक नन्हीं-सी बँद आपके लिए अमतकलश से भी मीठी होती है; उनके दुलार का एक-एक कण आपके लिए कोहनर से भी अधिक कीमती होता है। दूसरी ओर, भाभी झरोखे की फाँक से आपके ऊपर मस्कानों की मणियाँ बरसा रही हैं और आपको स्नेहधन से मालामाल कर रही हैं। वे मुस्कानें आपके थके हुए जीवन के लिए विश्रामस्थल हो उठती हैं।

     बैलगाड़ी किसी परदेशी को ही घर नहीं पहुँचाती, बल्कि गोरी को अपने साजन के गाँव भी ले आती है। अब पालकी तो मध्यमवर्गीय व्यक्तियों की बारात में ही दिखाई पड़ने लगी है। पालकीवालों की मजदूरी की दर इतनी बढ़ गई है कि आज उससे सस्ती टैक्सी हो गई है। इसलिए जब ऐसे ठेठ गाँव से माँ-बाप के कलेजे की टुकड़ी, सखियों के दुलार की पुतली, भाइयों के मनुहार की सहयोगिनी कोई लाडली विदा लेती है, तब उसके लिए बैलगाड़ी ही एकमात्र सवारी मिल पाती है। बैलगाड़ी पर सिसकती हुई, आँखों के दोने से अश्रु के अनगिनत मोती टपकाती हुई बेटी जब बाप के घर से विदा लेती है, बैलगाड़ी के पीछे लोटे में पानी लिए भाई दौड़ता चलता है, सहेलियाँ विदाई के गीत गाती चलती हैं।

     और, कभी आपने किसी रोगी की दशा पर खयाल किया है? बेचारे का अंग-प्रत्यंग रोग के कारण जर्जर हो गया है। जो व्यक्ति जेठ की कठिन दुपहरी में सीने पर लू के सौ-सौ खंजर झेलता हुआ कृषियज्ञ में अपने स्वेद की समिधा हँसते-हँसते समर्पित करता था, उससे आज खाट के सिरहाने रखे लोटे से स्वयं दो घूट जल पीते नहीं बन रहा है। उठने-बैठने की शक्ति भी व्याधि ने छीन ली है। उसके पास इतने पैसे भी नहीं कि वह लंबी फीस देकर बड़े-से-बड़े डॉक्टर को बुला ले। ऐसी स्थिति में किसानों के आजीवन सखा बैल ही उसे बैलगाड़ी पर ढोकर दूर शहर पहुँचाते हैं, उसके उड़ते हुए प्राण-पखेरू को रोक पाते हैं, उसे चंगा होने का अवसर देते हैं।

     मेले का दिन आ गया है। सारा समाज उमंगों और उछाहों के हिंडोले पर झूल रहा है। बच्चों के मन में खुशियों का समुंदर लहरा रहा है। चुन्नू-मुन्न, रुन्नी-झुन्नी सबने बाबा को कई दिनों से तबाह कर रखा है। बस क्या है, बैलगाड़ी सज जाती है। बैलों के गले में नई गरदनी डाल दी जाती है और नाक में नई नाथ पहना दी जाती है। उनके सींग सिंदूर से रंग दिए जाते हैं। गाड़ीवान बैलगाड़ी पर बच्चों की पलटन लिए बैलों को 'वाह मेरे राजा, वाह मेरे बाबू' कहकर टिटकारता हआ अपनी गाडी को राजकीय रथ की तरह दौड़ाता है और वायुमंडल में धूलि का चँदोवा फैलाती हुई बैलगाड़ी निकल पड़ती है।

     अतः, जब तक भारतवर्ष के लगभग सात लाख से भी अधिक गाँव अमेरिका के गाँवों की भाँति बड़े-बड़े नगरों की पिच सड़कों से संबद्ध नहीं हो जाते, तब तक बैलगाड़ी की अनिवार्यता समाप्त नहीं हो सकती। आप लाख इस मंदगति सवारी की खिल्ली उड़ाएँ, लेकिन जहाँ भारत की आत्मा बसती है, जहाँ उसका अपना वास्तविक रूप दिखाई पड़ता है, उन गाँवों का श्रृंगार है बैलगाड़ी।

     बैलगाड़ी सचमुच सामान्य भारतीयों का रथ है। यह भारत की संस्कृति और सरलता का प्रतीक है, इसमें कोई संदेह नहीं। बैलगाड़ी की सवारी की अपनी खुबी है, अपनी विशेषता है, जिसकी समता अन्य सवारियों से कुछ नहीं है। जमाना चाहे जितना भी बदल जाए, जो लोग बैलगाड़ी को म्यूजियम में रख देने के समर्थक हैं, उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति के बहुत-सारे स्मारकों को म्यूजियम में ही रख देना पड़ेगा।

--सतीश  कुमार 
(मार्च 26, 2021)
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                       (साभार एवं सौजन्य-माय हिंदी लेख.इन)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-07.01.2023-शनिवार.