साहित्यशिल्पी-हिंदी गद्य के विकास में आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल-डॉ.रामविलास शर्मा-

Started by Atul Kaviraje, January 07, 2023, 09:55:43 PM

Previous topic - Next topic

Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
                                    ---------------

मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "हिंदी गद्य के विकास में आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्‍यताएं"

हिंदी गद्य के विकास में आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्‍यताएं [आलेख]- अश्विनी कुमार लाल--
-----------------------------------------------------------------------

     आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल ने अपनी पुस्‍तक 'हिंदी साहित्‍य का इतिहास' में हिंदी गद्य के उद्भव और विकास पर पर्याप्‍त प्रकाश डाला है। हिंदी भाषा और गद्य के विकास को समझने के लिए शुक्‍ल जी ने बोलचाल की भाषा, जनता के व्‍यवहार में आनेवाली भाषा पर अपनी निगाह जमाई है। डॉ. रामविलास शर्मा इस संदर्भ में लिखते हैं- "भाषा का मतलब सबसे पहले जनता के कामकाज की भाषा है, साहित्‍य की भाषा और उस भाषा की विभिन्‍न शैलियां बाद में आती हैं। यह एक सही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण शुक्‍ल जी को उन खाई-खंदकों में गिरने से बचाता है जिनमें पड़े हुए हिंदी और भारत की दूसरी भाषाओं के भी अनेक 'वैज्ञानिक' आसमान के तारे गिर रहे हैं।" आचार्य शुक्‍ल का मानना है कि यदि किसी भाषा का लिखित रूप मौजूद नहीं है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भाषा कभी बोली ही नहीं जाती होगी। डॉ.शर्मा भी लिखते हैं-"लिखित साहित्‍य के आधार पर भाषा निश्चित नहीं की जा सकती।" इसलिए शुक्‍ल का मानना है कि भाषा सबसे पहले मौखिम व्‍यवहार का माध्‍यम है। इस संबंध में शुक्‍ल जी लिखते हैं- "पर किसी भाषा का साहित्‍य में व्‍यवहार न होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्‍व ही नहीं था। उर्दू का रूप प्राप्‍त होने के पहले खड़ी बोली देशी रूप में वर्तमान थी।"

     आचार्य शुक्‍ल ने यह भी स्‍पष्‍ट किया कि खुसरो से पहले हिंदी में मौखक साहित्‍य रचा जाता होगा। इस संदर्भ में शुक्‍ल जी लिखते हैं कि "कोई भाषा हो, उसका कुछ न कुछ साहित्‍य अवश्‍य होता है– चाहे वह लिखित न हो, श्रुति परंपरा द्वारा ही चला आता हो। अत: खड़ी बोली के भी कुछ गीत, कुछ पद्य, कुछ तुकबंदियां खुसरो के पहले से अवश्‍य चली आती होंगी।" इस प्रकार आचार्य शुक्‍ल ने मौखिक साहित्‍य को भी महत्‍वपूर्ण माना, जिससे हमारी भाषा के प्राचीनतम रूप का पता चलता है। इसलिए हिंदी भाषा पर विचार करते समय उसकी प्राचीनतम रूप की तलाश की जानी चाहिए जो मौखिम रूप में विद्यमान है। इस संदर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा का कहना है कि "साहित्‍य का माध्‍यम बनने से पहले कितनी ही शताब्दियों तक भाषा मौखिक रूप में प्रचलित रहती है, लिखित साहित्‍य ऐसे बहुत-से साधनों पर निर्भर रहता है, जो भाषा के लिए नियामक नहीं हैं। इसलिए उसके मौखिक रूप पर ध्‍यान देते हुए हिंदी की प्राचीनता पर नये सिरे से विचार करने की आवश्‍यकता है।"

     आचार्य शुक्‍ल ने खड़ी बोली के प्रसार का संबंध हिंदू व्‍यापारी जातियों के साथ जोड़ा है। शुक्‍ल जी लिखते हैं- "दिल्‍ली के आसपास के प्रदेशों की हिंदू व्‍यापारी जातियां (नगरवाले, खत्री आदि) जीविका के लिए लखनऊ, फैजाबाद, प्रयाग, काशी, पटना आदि पूर्वी शहरों में फैलने लगी।" वहीं वे खड़ी बोली के प्रसार का संबंध मुसलमानों के फैलने से जोड़ते हैं। उन्‍होंने लिखा है- "देश के विभिन्‍न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्‍ली की दरबारी शिष्‍टता के प्रचार के साथ ही दिल्‍ली की खड़ी बोली शिष्‍ट समुदाय के परस्‍पर व्‍यवहार की भाषा हो चली थी।" इस प्रकार आचार्य शुक्‍ल ने खड़ी बोली के प्रसार में हिंदुओं एवं मुसलमानों की भूमिका महत्‍वपूर्ण मानी है। डॉ. रामविलास शर्मा, आचार्य शुक्‍ल से उपर्युक्‍त संदर्भ के प्रति अपनी असहमति व्‍यक्‍त करत हुए लिखते हैं- "न तो खड़ी बोली केवल हिंदू व्‍यापारी जातियों के साथ फैली, न मुसलमानों के फैलने और दरबारी शिष्‍टता के प्रचार के साथ उसका संबंध है। खड़ी बोली के प्रसार का संबंध हमारे जातीय निर्माण से है, अवध, ब्रज आदि जनपदों के अलगाव टूटने से, व्‍यापार की मंडियां कायम होने से है और इस प्रक्रिया में हिंदू-मुसलमान दोनों शामिल थे।" इस प्रकार डॉ. रामविलास शर्मा ने खड़ी बोली के प्रसार का संबंध जातीय निर्माण से जोड़ा है जो कहीं न कहीं ठी भी है। वहीं शुक्‍ल जी खड़ी बोली के प्रसार का संबंध बाजारों से जोड़ते हैं। इस संबंध में डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- "शुक्‍ल जी ने बाजारों के साथ खड़ी बोली के प्रसार का संबंध जोड़ा, यह उनकी सूझबूझ का बहुत बड़ा प्रमाण है। वैज्ञानिक इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि सामंतवाद के पतनकाल में, पूँजीवाद के उत्‍थान काल में, बाजारों के कायम होने के साथ जातियों का निर्माण भी होता है।"

--अश्विनी कुमार लाल
-------------------

                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
                    -----------------------------------------   

-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-07.01.2023-शनिवार.