साहित्यशिल्पी-हिंदी गद्य के विकासमें आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल और डॉ.रामविलास शर्मा

Started by Atul Kaviraje, January 08, 2023, 09:44:09 PM

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Atul Kaviraje

                                      "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "हिंदी गद्य के विकास में आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्‍यताएं"

हिंदी गद्य के विकास में आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल और डॉ.रामविलास शर्मा की मान्‍यताएं [आलेख]- अश्विनी कुमार लाल--
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     खड़ी बोली हिंदी गद्य के विकास में आचार्य शुक्‍ल अंग्रेजों के योगदान को नहीं स्‍वीकार करते, क्‍योंकि शुक्‍ल जी के सामने खड़ी बोली के प्रसार के ऐतिहासिक कारण स्‍पष्‍ट थे। सच तो यह है कि अंग्रेजों ने खड़ी बोली के प्रसार में योगदान तो नहीं दिया बल्कि भाषायिक विभाजन अवश्‍य पैदा कर दिया। इस संदर्भ में डॉ. रामविलास शर्मा का कथन बहुत महत्‍वपूर्ण है, "अंग्रेजों के आने से पहले हमारे जातीय निर्माण का सिलसिला काफी आगे बढ़ चुका था, उसी के साथ खड़ी बोली के प्रसार का काम भी काफी आगे बढ़ चुका था। वास्‍तव में अंग्रेजों ने अपनी भेद-नीति से हमारे जातीय निर्माण में काफी अड़ंगे लगाये और भाषा के मामले में दखल देकर हिंदी-भाषी जाति को तोड़ने की काफी काशिश की।"10 इससे तो साफ स्‍पष्‍ट है कि अंग्रेजों ने हमारी जातीय भाषाओं के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी, जो जातीय निर्माण में बाधक सिद्ध हुई। आचार्य शुक्‍ल ने स्‍पष्‍ट किया है कि अकबर और जहांगीर के शासनकाल में खड़ी बोली भिन्‍न-भिन्‍न प्रदेशों में शिष्‍ट समाज के व्‍यवहार की भाषा हो चली थी। इससे तो साफ स्‍पष्‍ट है कि अंग्रेजी राज जिस समय भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय भारत में खड़ी बोली व्‍यवहार की शिष्‍ट भाषा हो चुकी थी। इसलिए खड़ी बोली गद्य के प्रसार में अंग्रेजों का योगदान बतलाना गलत होगा। इस संदर्भ में उन्‍होंने रामप्रसाद 'निरंजनी' के गद्य की मिसाल देकर कहा है कि "मुंशी सदासुख और लल्‍लू लाल से 62 वर्ष पहले खड़ी बोली का गद्य अच्‍छे परिमार्जित रूप में पुस्‍तकें आदि लिखने में व्‍यवहृत होता था। अब तक पाई गई पुस्‍तकों में 'योगवाशिष्‍ठ' ही सबसे पुराना है, जिसमें गद्य अपने परिष्‍कृत रूप में दिखाई पड़ता है।"

     इस तरह शुक्‍ल जी ने अंग्रेजों के इस प्रचार का तर्कसंगत खंडन किया कि उन्‍होंने कलकत्‍ते में हिंदी-गद्य का पौधा लगाया था। शुक्‍ल जी की हिंदी, उर्दू संबंधी मान्‍यताओं के आधार पर डॉ. शर्मा ने यह निष्‍कर्ष निकाला है कि वह बुनियादी तौर से हिंदी-उर्दू को एक ही भाषा समझते थे। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं- "बोलचाल की भाषा का सूत्र पकड़े रहने से शुक्‍लजी इस भ्रम में नहीं पड़े कि हिंदी-उर्दू दो स्‍वतंत्र भाषाएं हों।" इस प्रकार आचार्य शुक्‍ल हिंदी-उर्दू को एक ही भाषा मानते थे। उर्दू खड़ी बोली का ही एक रूप है,यह मान्‍यता उनकी अनेक उक्तियों में प्रकट होती हैं। उन्‍होंने इंशा के सिलसिले में लिखा है, "खड़ी बोली उर्दू कविता में पहले बहुत कुछ मँज चुकी थी, जिससे उर्दू वालों के सामने लिखते समय मुहावरे आदि बहुतायत से आया करते थे।" शुक्‍ल जी ने कहीं-क‍हीं उर्दू को कृत्रिम कहा तथा उसका संबंध मुसलमानों से जोड़ा। पर रामविलास शर्मा यहां शुक्‍ल जी से अपनी असहमति व्‍यक्‍त करते हुए लिखते हैं- "उर्दू लिखने वालों में बहुत हिंदू भी थे, यह सभी जानते हैं। उर्दू में बोलचाल का रूप मौजूद है और बहुत अच्‍छी तरह मौजूद है, यह भी लोग जानते हैं। सदासुख लाल, लल्‍लू जी लाल, भारतेन्‍दु हरिश्‍चंद्र, बालमुकुन्‍द गुप्‍त आदि गद्य के जन्‍मदाता उर्दू के अच्‍छे लेखक थे। उनके उर्दू लेखक होने का असर उनकी हिंदी पर भी पड़ा और यह असर अच्‍छा था, यह भी लोग जानते हैं। अगर उर्दू कृत्रिम ही होती तो ये लोग उससे कुछ सीखने लायक क्‍या सीखते ? और इनके बाद भी प्रेमचंद, पद्मसिंह शर्मा आदि लेखक हिंदी-उर्दू में समान रूप से अच्‍छा क्‍यों लिखते ?"

--अश्विनी कुमार लाल
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-08.01.2023-रविवार.