साहित्यशिल्पी-नवरात्रि पर विशेष आलेख श्रंखला-आलेख–2

Started by Atul Kaviraje, January 31, 2023, 09:10:39 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "नवरात्रि पर विशेष आलेख श्रंखला"

नवरात्रि पर विशेष आलेख श्रंखला - देवी शक्तियों का बस्तर- [आलेख – 2]- राजीव रंजन प्रसाद--
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     उपरोक्त सभी संदर्भ भ्रमित करते हैं क्योंकि कोई भी विद्वान एक स्पष्ट दिशा नहीं देते। यहाँ तक कि हर शिलालेख से अपने-अपने मायने निकल रहे हैं। यदि विन्ध्यवासिनी ही मणिकेश्वरी हैं तो यह नामपरिवर्तन किस लिये? यदि मणिकेश्वरी काकतीयों की आराध्य हैं तो नाग सत्ता की आराध्य देवी विन्ध्यवासिनी एक तीसरी देवी सत्ता होनी चाहिये? यदि अन्नमदेव के साथ मणिकेश्वरी देवी के पावन चरण बस्तर पर पड़े तो दंतेश्वरी माता का अस्तित्व यहाँ और प्राचीन सिद्ध होता है जैसा कि लाला जगदलपुरी आदि विद्वान मानते हैं। क्या ये सभी देवी शक्तियाँ पर्याय मात्र हैं? क्या इन नामों के पर्याय होने के पीछे कोई दंतकथा उपलब्ध है? इस विषय पर विद्वानों ने कोई संदर्भ उपलब्ध नहीं कराये हैं। एक महत्वपूर्ण कथन जो इस विषय में सभी प्रसंगों का सामान्यीकरण करता है वह इलियट का है। ईलियट (1856:3) बताते हैं कि "वर्तमान राजाओं के पूर्वज बस्तर आने से पूर्व मणिकेश्वरी देवी के उपासक थे जब वे बस्तर आये तो मणिकेश्वरी देवी ने दंतेश्वरी देवी का रूप ले लिया।"

     तथ्य अभी और शोध की माँग करते हैं, तथापि वह चाहे नाग युग हो, काकतीय हो अथवा वर्तमान काल देवीपूजा के अनेकों विधान तथा शक्तिशाली देवियों के यहाँ अवस्थित होने के अनेकानेक प्रमाण उपलब्ध मिलते हैं। नारायणपुर से कुछ ही दूरी पर छींदपाल गाँव में महिषासुरमर्दिनी का नागयुगीन मंदिर आज भी उपलब्ध है तो कुरुषपाल के मंदिर में भी महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। नाग-काल से ही बस्तर में माँ दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी तथा कंकालीदेवी की पूजा की जाती रही है। इसके साथ ही सप्तमातृकाओं के पूजन की प्राचीनकालीन प्रथा (शुक्ल:1977) का भी उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा। कहते हैं कि ये सप्तमातृकायें आदिम कबीलों के प्रभाव से ही अवतरित हुई हैं – सा मातेव भविष्यत्वात तेनासौ मातृकोदिता (तंत्रलोक 4:15) ये सप्तमातृकायें - ब्राम्ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, एन्द्रानी तथा चामुण्डा कही जाती हैं। इन सप्तमातृकाओं के स्मारक बस्तर के सातगाँव (कोण्डागाँव), भगदेवा (कोण्डागाँव) तथा मातला (नारायणपुर) मे मिलते हैं। वृक्षों, नदी, नालों, टीलों, पर्वतों या किसी भी प्राकृतिक वस्तु में इनका आवास हो सकता है। इन देवियों को प्रसन्न करने के लिये बस्तर में आज भी ककसाड़ (देवी यात्रा) की परम्परा चल रही है (शुक्ल, 1986)।

     जब दंतेवाड़ा में अवस्थित माँ दंतेश्वरी तथा माँ मणिकेश्वरी की बात चल ही रही है तो कुछ बात शंखिनी और डंकिनी नदियों की पावनता और उसके मिथकीय इतिहास पर भी। डॉ. हीरालाल शुक्ल से प्राप्त संदर्भ से ही विषय आगे ले जाना चाहूँगा (चक्रकोट के छिन्दक नाग: 140) कि बैद्धग्रंथों में जिसे वज्रयोगिनी कहा गया है तथा तंत्रशास्त्र में जो वज्र या छिन्नमस्ता कही गयी है वह वज्रयान सम्प्रदाय की देवी प्रतीत होती हैं तथा उनकी प्राण प्रतिष्ठा बस्तर में उसकी सहचरियों शंखिनी तथा डंकिनी नाम से अनुमानित की जा सकती हैं। इन नामों की दो नदियाँ दंतेवाड़ा होते हुए आज भी प्रवाहित होती हैं। शंखिनी को योगिनी या वर्णिनी भी कहा गया है। वह रजोगुण प्रधान व मोक्षप्रदा हैं। यह छिन्नमस्ता की दाहिनी ओर योनिमुद्रा में रहती हैं। यह बड़े वेग से उठती हुई रक्त की धारा अपनी स्वामिनी को पिलाती हैं। हड्डियाँ इस योगिनी के आभूषण हैं। इसके हाँथ में चमकता हुआ भयंकर खड्ग रहता है। इसका वर्ण, केश और नेत्र रक्तिम होते हैं। यह विवस्त्र रहती हैं। डंकिनी एक दिगम्बरी तांत्रिक देवी हैं। इसके केश खुके हैं। यह कृष्णवर्णा तमोगुणयुक्त हैं। यह प्रचंड हैं तथा प्रलयकालीन घोर घटाटोप की तरह इसका काला रूप है। विकराल दाँतों के कारण इनके मुख, उदरविवर तथा कण्ठ को नहीं देखा जा सकता। जिव्हा का अग्रभाग लपलपाता रहता है। इनकी दोनों आँखें बिजली की तरह चंचल हैं। ये दोनो देवियाँ बस्तर के जनजातीय गीतों में बार बार आती हैं।

--राजीव रंजन प्रसाद
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-31.01.2023-मंगळवार.
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