साहित्यशिल्पी-नवरात्रि पर विशेष आलेख श्रंखला-आलेख–2

Started by Atul Kaviraje, February 01, 2023, 09:33:04 PM

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Atul Kaviraje

                                      "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "नवरात्रि पर विशेष आलेख श्रंखला"

नवरात्रि पर विशेष आलेख श्रंखला - देवी शक्तियों का बस्तर- [आलेख – 2]- राजीव रंजन प्रसाद--
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     यहाँ संदर्भ को विवेचना के बिना नहीं छोड़ा जा सकता। बस्तर में अपना मातृसत्तात्मक दिव्य आवरण है। यह एक समृद्ध क्षेत्र के शनै: शनै: पिछड़ते जाने को समझने की कड़ी भी है। रायबहादुर डॉ. हीरालाल ने अपनी किताब मध्यप्रदेश का इतिहास के दसवे अध्याय में उल्लेख किया है कि "नागवंशी काल में बस्तर में अच्छे विद्वान रहते थे। वह निरा मुरिया-माड़िया पूर्ण जंगल नहीं था जैसा कि इन दिनो है। वहाँ की प्राचीन शिल्पकारी भी प्रसंशनीय है। बस्तर राज्य ऐसी जगह पर था जहाँ अन्य राजा जब चाहे आक्रमण कर बैठते थे, तिस पर भी नागवंशी अपने को सदैव संभालते रहे और चार-पाँच सौ वर्षों तक किसी की दाल नहीं गलने दी।" यह पहलू तब बदला जब नाग साम्राज्य अनेकों शाखाओं और मण्डलों में विभाजित हो गया। अन्नमदेव को यहाँ आ कर एक दो नहीं कई लड़ाईयाँ जीतनी पड़ी क्योंकि नाग पंचकोशी राजा रह गये थे। प्रजा त्रस्त थी कि किसके प्रति प्रतिबद्ध रहें और किसका साथ दें उन्होंने अन्नमदेव का साथ दिया। अन्नमदेव ने स्थानीय मान्यताओं को अक्षुण्ण रखने का आश्वासन दिया था। उनकी लोकप्रियता इसी कारण बढ़ी तथा कालांतर में वे स्वयं कई दंतकथाओं का हिस्सा बन गये। काकतीय शासन ने वारंगल में अपनी समृद्धि का एक बड़ा काल देखा था और उसके दुष्परिणाम भुगते थे अत: अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद यह आवश्यक था कि राज्य के दरवाजे मुसलमान आक्रांताओं के लिये बंद कर दिये जायें। इस बंद करने की प्रवृत्ति ने बस्तर को रहस्यमयी और गोपनीय बना दिया। अन्नमदेव ने धन संचय और समृद्धि बटोरने की जगह शांतिप्रिय तथा कम चर्चा में रहने वाली सत्ता का विकल्प चुना जिसे उसके बाद वाले शासको ने भी आगे बढ़ाया। परिणाम यह हुआ कि आम जन पीछे जाते गये। आम जन जनजातियों में परिवर्तित होते चले गये तथा कुछ सौ सालों में ही हालात इतने बदतर हो गये कि जिन क्षेत्रों मे राजधानियाँ हुआ करती थी वहाँ के नागरिको पर आदिवासी होने का चोला चढ़ गया। वे अनोखे, विरक्त और अबूझ होते चले गये। यहाँ सत्ता और प्रजा के बीच जुड़ने की सबसे बड़ी कड़ी वही देवियाँ रही हैं जिन्होंने सत्ता परिवर्तन के साथ साथ अपनी मान्यताओं के परिवर्तन का दंश भी सहा है।

     राजा प्रजा तथा देवी का यह अंतर्सम्बन्ध स्वतंत्रता के पश्चात भी जारी रहा। राजा प्रवीर ने देवीमहात्म्य को गहराई से समझा था। वे जानते थे कि भले ही सत्ता की कड़ी उनसे टूट गयी है लेकिन वे देवी के माध्यम से आम जन तक अपनी पहुँच बनाये रख सकते हैं। उन्होंने स्वयं को देवी दंतेश्वरी का अनन्यतम पुजारी कहलाना अधिक पसंद किया। एक पुजारी बनने के कारण आदिवासी जनता ने अपने बीच ऐसा संत पाया जो ताज छिन जाने के बाद भी उनका ही है वह उनकी आस्थाओं के साथ खड़ा रहता है। प्रवीर की इस पुजारी भूषा ने भी उन्हें लोकतंत्र में एक स्वीकार्य नेता बनाया था। इतना सशक्त नेता कि 1961 में जब वे राजनीतिक शक्तिपरीक्षण करना चाहते थे तब भी उनके द्वारा दशहरा पर्व चुना गया। इस वर्ष का दशहरा बस्तर के इतिहास में दर्ज है जब इतनी भीड़ जगदलपुर में हो गयी थी कि सड़कों पर चलने के लिये इंच मात्र भी जगह नहीं बची थी।

--राजीव रंजन प्रसाद
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-01.02.2023-बुधवार.
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