साहित्यशिल्पी-एक बार पुन: बुद्धम् शरणम् [बुद्ध-पूर्णीमा पर विशेष आलेख]

Started by Atul Kaviraje, February 21, 2023, 09:38:11 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "एक बार पुन: बुद्धम् शरणम् [बुद्ध-पूर्णीमा पर विशेष आलेख]"

  एक बार पुन: बुद्धम् शरणम् [बुद्ध-पूर्णीमा पर विशेष आलेख]- राजीव रंजन प्रसाद--
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     मतभिन्नता का सिलसिला बौद्ध मतानुयाईयों में यहीं नहीं रुका अपितु मंत्रयान, तंत्रयान, वज्रयान जसी धारायें बनती गयीं और अपनी जडों से बुद्ध के उपदेशो की मूल भावना का क्षरण होता चला गया। वज्रयान सम्प्रदाय के उद्भव के साथ ही बौद्ध धर्म में हठयोग, तंत्र-मंत्र, सुरा, सुन्दरी और भोग-विलास का प्रवेश हो गया था। जिन व्याधियों के उपचार स्वरूप बौद्ध-धर्म का पावन पदार्पण हुआ था उस में वही व्याधियाँ महामारियाँ बन कर लिपट गयीं। कई विद्वान मानते हैं कि राजाश्रय प्राप्त होने के कारण बौद्धविहारों को मिलने वाली मूल्यवान भेंटों और सम्पदा के अम्बार ने भी बुद्ध के अनुशासन के दसो नियमों से भिक्षुओं को विमुख कर दिया था तथा अनेक अवसरवादियों नें भ्रष्टाचार को इन संघों के भीतर जन्म दिया। संघों में एक केन्द्रीय सत्ता का बुद्ध के बाद अभाव हो गया था। चूँकि स्वेच्छाचारिता में संगठन की मूल भावना नहीं होती, अत: सूत्र के अभाव में बहुत से बहुमूल्य मोती माला बनने में सफल नहीं हो सके अपितु बिखरते चले गये।

     दु:खद है कि जिन युगों ने हमे अनीश्वरवाद, कर्मवाद, ज्ञानवाद, स्यादवाद, अनेकांतवाद, कारणवाद, क्षणिकवाद, यथार्थवाद, आत्मवाद, अनात्मवाद जैसे दर्शन दिये संभवत: हमने किसी भी युग में इन दर्शनों के मर्म को समझने का यत्न ही नहीं किया जबकि इस सभी संदर्भों पर हमारे बुद्धिजीवियों के आख्यानों की लम्बी लम्बी टीकायें उपलब्ध हैं। भारत को हर युग में आज की तरह के विवेचनावादी बुद्धिजीवी ही हासिल हुए हैं जिनसे व्याख्यान आप चाहे जितने करवा लीजिये; वे बाल की खाल तक के चौरासी भेद बता सकते हैं लेकिन समाज को दिशा देना उनकी क्षमता में नहीं है। बुद्ध ने जो रास्ते बतायें उनका हमारे विवेचनावादी तर्कशास्त्रियों ने आम से इमली कर दिया। कार्ल मार्क्स ने अनीश्वरवाद से ले कर सर्वजन समानता तक एसा क्या कहा है जो बुद्ध का मार्ग नहीं है? जो दर्शन आपकी अपनी भूमि पर, आपकी अपनी खाईयों को दृष्टिगत रखते हुए तथा आपके अपने मनोविज्ञान पर आधारित हैं वे ही आपके प्रत्येक संदेह का निवारण कर सकते हैं। हम शास्त्रार्थों को निरर्थक समझने लगे हैं; ऐसी संगतियों व सम्मेलनों का युग ही समाप्त हो गया जहाँ उपलब्ध विचारों का विमर्श व मंथन के बाद समन्वयन हो।
क्यों चार संगतियों के बाद बौद्ध विचारक उसी सोच के साथ पुन: एकत्रित नहीं हुए? क्या बुद्ध के विमर्श की आज की आवश्यकता के अनुरूप विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है? तो कहाँ खोये हुए हैं दुनिया भर के बौद्ध विद्वान? क्यों उन्हें आज पाँचवी बौद्ध संगति की आवश्यकता नहीं लगती? धार्मिक चश्नों को परे रखें, सांचों-खांचों को ध्वस्त करें और कुले दिल दिमाग से विवेचित करें तो यह महसूस होगा कि आवश्यकता धर्म और जातियों की खेमेबंदी से परे हो कर सोचने की है। आज बुद्ध को कतिपय लोगों की ठेकेदारी ने जितना नुकसान पहुँचाया है उतना तो आक्रांताओं के लिये भी सम्भव नहीं था। सोच की थोड़ी सी व्यापकता ही हमें भारतीयता के गर्व से जोड़ सकती है, बुद्ध के मर्म के सम्मुख खड़ा कर सकती है। आईये अपने भीतर उतर कर एक बार पुन: स्वयं को मथें और कदम आगे बढा कर कह उठें – बुद्धम शरणम गच्छामि।

--राजीव रंजन प्रसाद
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-21.02.2023-मंगळवार.
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