साहित्यशिल्पी-बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 17

Started by Atul Kaviraje, March 01, 2023, 09:47:27 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 17 झारानंदपुरीन और हिरमराज"

बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 17 झारानंदपुरीन और हिरमराज - [यात्रा वृतांत] - राजीव रंजन प्रसाद--
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     दंतेवाड़ा जिले में एक छोटा सा गाँव कुतुलनार जिसकी प्रतिनिधि देवी का नाम कुतुलनारिन। अपनी प्रत्येक यात्रा के साथ मेरा प्रयास रहता है कि जनजातीय मान्यताओं के सभी मंदिर, वहाँ अवस्थित प्रतिमायें, निकटस्थ लोकजीवन और परम्पराओं से भी परिचित हो सकूं। अनेक बार इसी कारण इतिहास के कई अनछुए पन्ने पलटने में मुझे सहायता मिली है। कुतुलनारिन देवी के घने जंगल के बीचोबीच अवस्थित मंदिर तक पहुँचने में यदि आपने मुख्य मार्ग को छोड दिया तो फिर लम्बा चलना भी पड सकता है, यही मेरे साथ हुआ। जिस रास्ते से अब मैं मंदिर के किये बढ रहा था उसके लिये नाला पार करने के साथ साथ गीले कच्चे रास्तों से संघर्ष करने जैसी बाधायें थीं। पेड पर चढा ग्रामीण छिंदरस निकाल रहा था, मेरे कतिपय सहयोगी तो वहीं इसका आस्वादन करने के लिये रुक गये और मुझे वहीं से गुजरते एक विद्यार्थी मोटरसायकिल से आगे भेज दिया गया। गहन नैसर्गिकता के बीच देवी कुतुलनारिन का मंदिर, जिसके द्वार पर ही देवी का पर्यायवाची परिचायक नाम झारानंदपुरीन भी लिखा हुअ था।

     मंदिर के सामने ग्रामीणों की भीड़ थी और सबसे अधिक तो बच्चों का जमघट। इन प्यारे प्यारे बच्चों के बीच बैठ कर लेखन, शोध जैसे शब्द बैने हो गये और मंदिर की पवित्रता का अहसास कई गुना अधिक महसूस हुआ। मैंने बच्चों से बहुत सी बातें की उनके स्कूल की, घर-परिवार की, दैनिक जीवन की और हर प्रश्न का उत्तर संकुचाते-इठलाते हुए मिला। मंदिर के प्रवेशद्वार पर ही काष्ठनिर्मित एक विशाल देवझूला लगा हुआ है। भीतर प्रवेश करने के साथ ही वहाँ इतिहास और समाजशास्त्र का चिरपरिचित समायोजन देखने को मिला। ऐतिहासिक महत्व की कुछ देवी-प्रतिमायें दृष्टिगोचर होते हैं, शिवलिंग, नंदी आदि के लगभग क्षरित हो चुके प्रस्तरावशेष भी वहाँ मिल जाते हैं। पूरी तरह श्रंगारित तथा वस्त्रों से ढके होने के कारण यहा प्राप्त प्रतिमाओं का समुचित विवरण प्राप्त करना सहज नहीं था। भीतर आपको देवीपूजा के साथ साथ जनजातीय परम्पराओं का निर्वहन करते हुए ग्रामीण समान रूप से दृष्टिगोचर होंगे। भीतर देवी के सम्मान में बजाये जा रहे वाद्ययंत्रों में तुरही और मोहरी प्रमुख थे।

--राजीव रंजन प्रसाद
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-01.03.2023-बुधवार.
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