साहित्यशिल्पी-बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 14

Started by Atul Kaviraje, March 08, 2023, 10:33:36 PM

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Atul Kaviraje

                                      "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 14 तो इस तरह नक्सलियों ने गढा आधार इलाका"

बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 14 तो इस तरह नक्सलियों ने गढा आधार इलाका - [यात्रा वृतांत] - राजीव रंजन प्रसाद--
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     एक भयावह अनुभव जिसमें हर-पल अब गिरे तब गिरे के अहसास के साथ हम बाईक से चलते हुए लगभग तीन किलोमीटर आगे आये होंगे कि मेरे सामने आधार ईलाका किस तरह बना और कैसे प्रसारित हुआ इसका पूरा परिदृश्य था। अगर आप इस स्थान से हो कर लौटे तो कभी अपने ड्राईंग रूम में बैठ कर यह बहस नहीं कर सकते कि आजादी के इतने साल बाद भी इन क्षेत्रों में सडक क्यों नहीं? वह सडक जो इस सुदूरतम क्षेत्र की जीवनरेखा हो सकती थी उसे इस बेरहमी से नष्ट किया गया है कि देख कर आपको कष्ट होगा और इस योजनाबद्धता के साथ कि आप रणनीतियों की परिणतियों को साक्षात सामने देख सकते हैं। रास्ते में ही एक कंकरीट का पुल जो पहाड़ी नदी के दो पाटों को जोडता था उसे माओवादियों ने नष्ट कर दिया था किंतु उसके अवशेष देखे जा सकते थे। यह नदी पैदल ही हमें पार करनी पड़ी तभी यात्रा आगे बढ सकी थी। पूरे रास्ते सड़क से अलग केवल जंगलों और पगडंडियों पर बाईक से एक निश्चित रफ्तार से ही चल पाना संभव था।

     बात पुन: सड़क की। सत्तर के दशक में कलेक्टर रहते हुए डॉ. ब्रम्हदेव शर्मा ने बस्तर से सुदूर क्षेत्रों की सडक परियोजनाओं को यह मानते हुए बंद करवा दिया था कि जनजातीय समाज तथा संस्कृति को संरक्षित रखने के दृष्टिगत इसकी आवश्यकता नहीं। तब सडकें भी नहीं बनीं और प्रशासन भी नदारद होता चला गया जिसका एक घातक परिणाम आसानी से भीतर आ घुसा नक्सलवाद भी है। बाद में जब सडकों की आवश्यकता समझी गयी तब तक इतनी देर हो गयी थी कि भूगोल की आड़ ले कर नक्सलगढ बस्तर में कई स्थानों पर गहरी पैठ कर चुका था। जो पुरानी सडकें थीं उन्हें निर्ममता से काट दिया गया, भीतर शीघ्र पहुँचने के जितने भी मार्ग थे यहाँ तक कि कुछ पगडंडियाँ भी, उन्हें इस तरह नुकसान पहुँचाया गया कि सहजता से कोई भी अंदरूनी क्षेत्रों में प्रवेश न कर सके। जब दिल्ली बस्तर के विषय में चीखती है कि बताओ सडक अब तक क्यों नहीं तो वह पिछले एक दशक से लगातार जलाये जा रहे सडक निर्माण वाहनों और मारे जा रहे ठेकेदार-मजदूरों पर शातिर चुप्पी भी ओढे रहती है। वैचारिक बहसों ने बस्तर की मूल परिस्थिति को हाशिये पर रखा है। मैं यह महसूस करते हुए समझ नहीं पा रहा कि वह बुढिया जो अपने नाती को कंधे पर लादे और सामान का बोझ भी उठाये उसूर बाजार से पैदल चली आ रही है वह किस सरकार की प्रजा है, जनतंत्र वाली अथवा जनताना वाली?

--राजीव रंजन प्रसाद
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                      (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-08.03.2023-बुधवार.
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