साहित्यशिल्पी-बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 14

Started by Atul Kaviraje, March 09, 2023, 10:33:41 PM

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Atul Kaviraje

                                     "साहित्यशिल्पी"
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मित्रो,

     आज पढते है, "साहित्यशिल्पी" शीर्षक के अंतर्गत, सद्य-परिस्थिती पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण लेख. इस आलेख का शीर्षक है- "बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 14 तो इस तरह नक्सलियों ने गढा आधार इलाका"

बस्तर यात्रा वृतांत श्रंखला, आलेख - 14 तो इस तरह नक्सलियों ने गढा आधार इलाका - [यात्रा वृतांत] - राजीव रंजन प्रसाद--
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     झाडियों से उलझते, कीचड से बचते, नालों को पार करते और कई बार पैदल किसी टीले पर चढ कर आगे बढते हुए अंतत: नडपल्ली गाँव पहुँचने के पश्चात यह समझ आ गया था कि आज इससे आगे बढने की संभावना नहीं। गाँव में ही एक चारपाई पर बैठ कर विश्राम करने के दौरान वहीं बैठी कुछ ग्रामीण युवतियों ने हमें खीरा खाने को दिया। एक ग्रामीण थोडी बहुत पूछताछ करने के पश्चात आश्वस्त होने पर ही पास ही उस देवगुडी में ले जाने के लिये तैयार हो गया जहाँ पुरातात्विक महत्व की कुछ प्रतिमायें भी ग्रामीणों द्वारा सहेज कर रखी गयी थी। वह दशहरे का दिन था अत: देवगुड़ी के पास एक पेड़ के नीचे मुर्गा लडाई का आयोजन था और ग्रामीण जमघट लगा कर बैठे हुए थे। प्रतिमाओं की तस्वीरें लेने तथा ग्रामीणों के भीतर के हालातों पर साक्षात्कार लेने के पश्चात नडपल्ली से हम उसूर की ओर लौटने लगे थे।

     मैने यह तय किया कि उसूर से नडपल्ली तक पहुँचने वाले मार्ग में सडक को काटने के नक्सली पैटर्न को समझा जाये। प्रत्येक दस मीटर पर सडक को लगभग डेढ फुट मोटाई में और चार से पाँच फुट गहराई में दोनो छोरों से आगे तक इस तरह काटा गया कि किसी भी ओर तथा किसी भी तरह के वाहन से इसपर चलना संभव न हो। तीन या चार स्थानों पर सडक काटने से भी परिवहन बाधित हो सकता था लेकिन यह लगातार कई किलोमीटर तक गहरी और क्रमिकता से काटी गयी थी। मैंने लगभग सात किलोमीटर सड़क में गणना की जिसे तीस स्थानों से समान दूरी पर काटा गया था। इस पैटर्न की तुलना माड़ के उन भीतरी क्षेत्रों से की जा सकती है जिन्हें गुरिल्ला बेस घोषित किया गया है जहाँ चारो ओर से ऐसी ही बाधायें उत्पन्न कर बीच के हिस्से को शेष जनजीवन से अलग-थलग कर द्वीप बना दिया गया है। यह तय है कि ऐसे हालातों में भीतर वही हो सकता है जो नक्सली चाहते हैं, संभव ही नहीं कि कोई अपनी इच्छा से इस भयावह चक्रव्यूह से बाहर निकल सकता है। इसीलिये माओवादियों को जंगल के भीतर हासिल इस कब्जे को बरकरार रखने के लिये सशस्त्र तथा वैचारिक कोशिशें निरंतर होती रहती हैं। इस कश्मकश में जो बात दबा दी जाती है वह इन जनजातीय क्षेत्रों में रह रहे लोगों की तकलीफें हैं।

--राजीव रंजन प्रसाद
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                     (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-साहित्यशिल्पी.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-09.03.2023-गुरुवार.
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