बुद्ध पूर्णिमा-बुद्धं शरणं गच्छामि-कविता-7

Started by Atul Kaviraje, May 05, 2023, 10:50:18 AM

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Atul Kaviraje

                                      "बुद्ध पूर्णिमा"
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मित्रो,

     आज दिनांक-०५.०५.२०२३-शुक्रवार है. आज "बुद्ध पौर्णिमा" है. हिंदू धर्म में हर माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा पर महीने का आखिरी दिन होता है. अभी वैशाख महीना चल रहा है. 5 मई 2023 को वैशाख पूर्णिमा है, इस दिन बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान गौतम बुद्ध का जन्मोत्सव भी मनाया जाता है. इसे बुद्ध पूर्णिमा और बुद्ध जयंती भी कहते है. मराठी कविताके मेरे सभी हिंदी भाई-बहन, कवी-कवियित्रीयोको  बुद्ध पूर्णिमा की अनेक हार्दिक शुभकामनाये. आईए, पढते है भगवान बुद्ध की कुछ कविताये-रचनाये.

  बुद्ध के समूचे जीवन और समाज का दर्शन कराती है हरिवंश राय बच्चन की कविता--

"बुद्धं शरणं गच्छामि,

धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि।"

बुद्ध भगवान,
जहाँ था धन, वैभव, ऐश्वर्य का भंडार,
जहाँ था, पल-पल पर सुख,
जहाँ था पग-पग पर श्रृंगार,
जहाँ रूप, रस, यौवन की थी सदा बहार,
वहाँ पर लेकर जन्म ,
वहाँ पर पल, बढ़, पाकर विकास,
कहाँ से तुममें जाग उठा
अपने चारों ओर के संसार पर
संदेह, अविश्वास?

और अचानक एक दिन
तुमने उठा ही तो लिया
उस कनक-घट का ढक्कन,
पाया उसे विष-रस भरा।
दुल्हन कि जिसे पहनाई गई थी पोशाक,
वह तो थी सड़ी-गली लाश।
तुम रहे अवाक्, हुए हैरान,
क्यों अपने को धोखे में रखे है इंसान,
क्यों वे पी रहे हैं विष के घूँट,
जो निकलता है फूट-फूट?
क्या यही है सुख-साज?
कि मनुष्य खुजला रहा है अपनी खाज?
निकल गए तुम दूर देश,
वनों-पर्वतों की ओर,
खोजने उस रोग का कारण,
उस रोग का निदान।
बड़े-बड़े पंडितों को तुमने लिया थाह,
मोटे-मोटे ग्रंथों को लिया अवगाह,
सुखाया जंगलों में तन,
साधा साधना से मन,
सफ़ल हुया श्रम,
सफ़ल हुआ तप,
आया प्रकाश का क्षण,
पाया तुमने ज्ञान शुद्ध,
हो गए प्रबुद्ध।

देने लगे जगह-जगह उपदेश,
जगह-जगह व्याख्यान,
देखकर तुम्हारा दिव्य वेश,
घेरने लगे तुम्हें लोग,
सुनने को नई बात
हमेशा रहता है तैयार इंसान,
कहने वाला भले ही हो शैतान,
तुम तो थे भगवान।
जीवन है एक चुभा हुआ तीर,
छटपटाता मन, तड़फड़ाता शरीर।
सच्चाई है- सिद्ध करने की ज़रूरत है?
पीर, पीर, पीर।

तीर को दो पहले निकाल,
किसने किया शर का संधान?
क्यों किया शर का संधान?
किस किस्म का है बाण?
ये हैं बाद के सवाल।
तीर को पहले दो निकाल।
जगत है चलायमान,
बहती नदी के समान,
पार कर जाओ इसे तैरकर,
इस पर बना नहीं सकते घर।
जो कुछ है हमारे भीतर-बाहर,
दीखता-सा दुखकर-सुखकर,
वह है हमारे कर्मों का फल।
कर्म है अटल।
चलो मेरे मार्ग पर अगर,
उससे अलग रहना है भी नहीं कठिन,
उसे वश में करना है सरल।
अंत में, सबका है यह सार-
जीवन दुख ही दुख का है विस्तार,
दुख की, इच्छा है आधार,
अगर इच्छा को लो जीत,
पा सकते हो दुखों से निस्तार,
पा सकते हो निर्वाण पुनीत।

--हरिवंश राय बच्चन
काव्य डेस्क
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                        (साभार एवं सौजन्य-संदर्भ-अमर उजाला.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-05.05.2023-शुक्रवार.
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