दिन-विशेष-लेख-जागतिक वृद्धजन अवमान विरोध दिन-B

Started by Atul Kaviraje, June 15, 2023, 05:31:19 PM

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Atul Kaviraje


                                    "दिन-विशेष-लेख"
                          "जागतिक वृद्धजन अवमान विरोध दिन"
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मित्र/मैत्रिणींनो,

     आज दिनांक-15.06.2023-गुरुवार आहे, १५-जून हा दिवस "जागतिक वृद्धजन अवमान विरोध दिन" म्हणूनही ओळखला जातो. वाचूया, तर या दिवसाचे महत्त्व, आजच्या या "दिन-विशेष-लेख" या शीर्षकI-अंतर्गत.

     वृद्ध हमारे समाज का महत्त्वपूर्ण आधार स्तंभ हैं। परंतु अवस्था ढल जाने के पश्चात् कई बार इन्हें समाज में गैर-ज़रूरी मान लिया जाता है। एक व्यक्ति जो आपके समाज में एक संसाधन के तौर पर कार्य कर रहा था अचानक ही समाज पर बोझ होने लगता है। भारतीय परिदृश्य में वृद्धों के समक्ष अनेक चुनौतियाँ विद्यमान हैं जो सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सभी रूपों में दिखाई देती हैं। वर्तमान समय में ग्रामीण क्षेत्रों में वृद्धजनों की स्थिति बदतर होने के पीछे एक बड़ा कारण प्रवासन है। चूँकि ग्रामीण क्षेत्र व्यापाक रूप में रोज़गार सृजन में अक्षम हैं इसके चलते अधिकांश युवा रोज़गार की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन करते हैं। परिणामस्वरूप उनके बूढ़े माता-पिता कई बार अकेले रह जाते हैं। इससे संबंधित एक अन्य पहलू यह भी है कि कई बार बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता को अपने साथ शहर में ले आते हैं ताकि वे साथ रह सकें और उनकी अच्छी देखभाल हो सके। एक नज़रिये से यह बात ठीक मालूम होती है लेकिन ग्रामीण परिवेश में जीवन व्यतीत करने वाले ये लोग स्वयं को शहरी परिवेश के अनुकूल बनाने में अक्षम होते हैं और धीरे-धीरे मानसिक असहजता के शिकार बन जाते हैं। वे शहर में आ तो जाते हैं लेकिन यहाँ उनके साथ कोई बोलने या बात करने वाला नहीं होता है। इस तरह जीवन में अचानक एकाकीपन आना भी एक बड़ी समस्या है।

     यदि सरकार के दृष्टिकोण से बात करें तो सरकारें बुजुर्गों को केंद्र में रखकर कोई बड़ी नीति बनाती हों ऐसा प्रायः देखने को नहीं मिलता है। सरकारी योजनाओं के केंद्र में फ़िलहाल युवा और महिलाएँ तो हैं लेकिन बुजुर्गों को अभी भी इस मामले में हाशिये पर ही रखा गया है। जब तक इन्हें योजनाओं के केंद्र में नहीं लाया जाएगा, उनके अनुसार योजनाएँ नहीं बनाई जाएँगी तब तक उनकी समस्याएँ समाप्त नहीं होंगी। बुजुर्गों को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिये सरकारों की ओर से दी जाने वाली वृद्धावस्था पेंशन सहायता राशि ऊँट के मुँह में जीरे के समान ही है। अपना पूरा जीवन सरकार को समर्पित करने वाले लोग जब सेवानिवृत्त होते हैं तो उनके पास अब आर्थिक सम्बल के रूप में पेंशन की कोई गारंटी भी नहीं रहती। ऐसे में वृद्धावस्था में अचानक उन लोगों पर आर्थिक निर्भरता की मज़बूरी सामने आ जाती है।

     शारीरिक रूप से निर्बल बुजुर्ग कई बार अकेले रहने की वज़ह से चोरी-डकैती के दौरान हमलों के शिकार भी बन जाते हैं। एक सभ्य समाज के रूप में हम उन्हें सुरक्षा मुहैया करा पाने में अक्षम रहे हैं। आए दिन बड़े शहरों में ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं।

     वृद्धजनों तथा वर्तमान पीढ़ी के बीच वैचारिक अंतराल भी एक समस्या के रूप में सामने आया है। दोनों का ही सोचने का अपना अलग नज़रिया है। ऐसे में कई बार ये लोग पारिवारिक रूप से उपेक्षित भी महसूस करते हैं। ऐसे संवेदनशील विषयों पर गंभीरता से विचार कर समाधान निकालने की कोशिश करनी होगी।

     देश में वृद्धाश्रम लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पहले वृद्धाश्रमों को हमारे समाज में बड़े ही नकारात्मक रूप में देखा जाता था और लोग यह मानते थे कि इनके खुलने से पुत्र-पुत्रियाँ अपनी ज़िम्मेदारियों से और ज़्यादा भागेंगे परंतु तब के समय में वृद्धों के साथ ऐसी संवेदनहीनता की स्थिति नहीं थी। शहरी मध्यवर्ग की लालसाओं का विकराल रूप भूमंडलीकरण के बाद अधिक मुखर हुआ है। जब समस्याएँ बढ़ीं तो धीरे-धीरे वृद्धाश्रमों की स्वीकार्यता भी बढ़ी। लेकिन देश में बेसहारा वृद्धों के लिये वर्ष 2018 तक 718 में से 488 जनपदों में एक भी वृद्धाश्रम नहीं था। देश में कुल वृद्धाश्रमों की संख्या 400 से कुछ अधिक रही लेकिन केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय अब हर जनपद में एक वृद्धाश्रम खोलने पर काम कर रही है।

     वृद्धों का समाज हमारे समाज के लिये पारंपरिक ज्ञान का विशाल भंडार होता है। हमें उस पारंपरिक ज्ञान को वर्तमान संदर्भों के साथ उपयोग करना सीखना चाहिये। इससे उनकी उपयोगिता लगातार बनी रहेगी और वे उपेक्षित महसूस नहीं करेंगे। जिस क्षेत्र में उनकी विशेषता है उन क्षेत्रों में उनसे मदद ली जानी चाहिये। सरकार को इस स्तर पर एक योजना तैयार करनी चाहिये जहाँ वे ग्राम स्तर से शहरी मुहल्लों तक यानी सबसे छोटी इकाई तक एक योजना बनाकर सभी क्षेत्रों में अपनी विशेज्ञता से समाज के लिये कुछ कर सकें। पुरानी व नई पीढ़ी के मध्य नैतिक मूल्यों का संतुलन साध कर बुजुर्गों को सम्मानजनक जीवन दिया जा सकता है। जिस उम्र में उन्हें संवेदना की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, उस उम्र में उन्हें कोई सुनने वाला तक नहीं होता, यह बड़ा संकट है। जीवन के अंतिम क्षणों में एक वृद्ध को जिस लगाव, स्नेह और अपनेपन की आवश्यकता होती है, उसे यह सब उसका अपना परिवार ही दे सकता है। वृद्धाश्रम में वे रह तो लेंगे लेकिन वह मानसिक सुख वहाँ नहीं मिलेगा। इसलिये सरकार को इस ओर कदम बढ़ाना चाहिये ताकि परिवारों में अपने घर के बुजुर्गों के प्रति नैतिक दायित्व का विकास हो सके।

--अनुराग सिंह
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                          (साभार आणि सौजन्य-संदर्भ-द्रीष्टी ias.कॉम)
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-----संकलन
-----श्री.अतुल एस.परब(अतुल कवीराजे)
-----दिनांक-15.06.2023-गुरुवार.
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